रचनाकार- ज्योत्स्ना शर्मा ('जलसा' पत्रिका से)
मेरा घरमेरी पीठ पर
एक निर्दय व्यंग्य भरी दृष्टि डालता
घर खड़ा रहता है चुप
घर
एक मृत पक्षी, एक गूंगी चिड़िया
मेरी इन्द्रियों पर
कोहरा तानता हुआ
घर एक क्रोधित कोढ़ी
सड़कों पर घेर लेते हैं मुझे
घर के शाप, अदृश्य प्रेतों की तरह
अचानक हमला करते
बिबिलाते हुए जब मैं लौटती हूँ घर वापस
अपने घाव सहलाता देखता है वो मुझे
ठंडी ममता से
ठंडी व्यथा से
ठंडी घृणा से
मुझ पर हैं घर के शाप
मेरे घर पर हैं किसके शाप?
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