फिलिस्तीनी कवि अब्दुल-अज़ीज़ का जन्म बेत इनान में जेरुसलम के करीब हुआ था. उन्होंने जोर्डन के स्कूलों में शिक्षण का कार्य किया.उनके काव्य संकलन बेबाक, स्पष्ट प्रयोगधर्मिता से भरे पड़े हैं. अज़ीज़ की कविता कवि-मन की अनूठी बेलौस अभिव्यक्ति करती है. स्त्री की उपस्थिति का सहजबोध, उसके व्यक्तित्व की तरंगो में डूबता उतरता कवि बिना किसी अवरोध के उसका होना,सम्पूर्ण होना स्वीकारता है... पेश है उनकी कविता 'द हॉउस '_घर
संयोग से मैं उससे मिला
वह एक स्त्री थी जिसके होठों और जूड़े से
प्रकाश झर रहा था.
झट उसने मेरी पसलियों से एक फूल तोड़ लिया
और गिरते झरने के ऊपरी छोर की ओर दौड़ गयी
जहाँ इसके चमकदार रेशों से उसने अपना घर बनाया.
जब मैंने उसे चूमा
वह हिरनी की त्वरित गति से
ईश्वर के उन्मुक्त देश झिलमिलाने लगी.
मैंने कहा,"तुम कौन हो, जल-अश्व ?"
और उसने कहा,"मैं रानी हूँ ".
मेरे आलिंगनबद्ध करते ही
उसने उद्दाम लहरों में मुझे समो लिया
मेरी चेतना के तारे जगमगा उठे.
मैंने कहा,"तुम कौन हो,मखमली पुष्प?"
उसने कहा,"मैं बुलबुल का मृदु पंख,
तुम्हारे चुम्बनों का सार...".
उसे सुगन्धित आलिंगन में भरकर मैंने
आत्मिक प्रार्थना पूरी की ,
उसने विप्लव उत्पन्न कर दिया है मेरे भीतर ,
प्रत्येक शिरा में और
कोशिका में
मेरी मृत देह पर स्पन्दित घर
के समान वह खड़ी है.
अनुवादक --विजया सिंह (अंग्रेजी से )
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