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शुक्रवार, 11 मार्च 2011

आज मेरी नयी कविता अमेरिकी अफ्रीकी कवयित्री लूसिले क्लिफ्टन (1936-2010) को समर्पित है. इनकी दुर्धर्ष स्त्री चेतना ने जीवन, शरीर,मन,इच्छा से संबंधित अनेक विषयों को अपनी कविताओं में समेटा. लूसिले क्लिफ्टन वर्ष १९९४ में  स्तन कैंसर से ग्रसित हुई. कहना न होगा कि स्त्री देह से जुडी इस अभेद्य त्रासदी का अनुभव कितना पीड़ादायक रहा होगा. मेरी कविता की तीसरी  और चौथी पंक्ति उनकी कविता '१९९४' से साभार ली गयी है.

स्त्रीत्व का नैसर्गिक सौंदर्य 

स्त्रीत्व का नैसर्गिक सौंदर्य 
पहली बार जाना,
'कितना खतरनाक होता है
दो स्तनों के साथ इस दुनिया में कदम रखना.'१
पहली बार समझा,
महज़ अंग नहीं सजीव चेतन हैं हमारे...
और पहली बार ही,
दर्द की कँटीली रेखाएँ खड़ी हो गई हैं
शरीर के एकाधिक पोरों में.
'मैं ठीक हूँ' का अपाहिज झूठ आश्वस्त नहीं
करता, न मुझे, न माँ-बाबूजी को.
ठंडे, दगहे शरीर (आत्मा) में सौंदर्य
नहीं, आकंठ भयाकुलता है
किसी के कामुक-स्नेहिल छुअन में
अकेले हो जाने की सिहरन.
भीतर-भीतर ठस्स होते जाते, कठोर
आगत को नकार कर एकबारगी
मैंने कहा,' ठीक हूँ'.

पीले पड़े, बेजान जिस्म, झड़ते केश,
आस्वादहीनता, दवाओं की अंतहीन फेहरिश्त,
बार-बार की लंबी नीम बेहोशी,
निहायत निर्मम हो गयी है.
उकताने लगी हूँ.
अकेले माँ-बाबू , अकेली मैं
बढ़ते जाते अकेलेपन में साथ-साथ हैं
यों कि साथ-साथ अकेले हो गए हैं.

मन की ऊरठ, रूखी हथेलियों ने
छीजती देह को थाम लिया है.
मेरी उन्मुक्त हँसी झूठी नहीं
मेरे-तुम्हारे स्पर्श के बीच अंकुरित
उष्मा भी सच है, अखंड है.
तुम और मैं हमेशा से
अखंड सत्य, अखंड सुंदर.
निरन्तर क्षीण होती मैं
तुममें अक्षुण्ण हूँ.

जोड़ने लगी हूँ अपनाआप
अधूरेपन की सहजता अस्वीकार कर पूर्ण होना चाहती हूँ
सतरंगे इंद्रधनुष को ऑंचल में बाँध
लाँघ जाना चाहती हूँ सारा आकाश
जबकि टूट रहा है देह का तिलिस्म, बेआवाज़,
वाकई मैं जीना चाहती हूँ...

१.लूसिले क्लिफ्टन कि कविता '१९९४' से उद्धृत है .

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