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गुरुवार, 24 मार्च 2011

ज्योत्स्ना शर्मा की एक अत्यंत प्रखर कविता 'श्रीमती सर्वसम्मती' है. स्त्री के होने में, उसकी पहचान में सबकी सम्मति का अतिरिक्त बोझ जरूर होता है. फिर चाहे वह पिता,भाई,पति,पुत्र का हो या असमानता ग्रसित समाज का. औरत होने के नाते वह सबकी वांछा, आवश्यकता को ढोते हुए ऑप्शनल की भूमिका निभाती रह जाती है. पेश है ज्योत्स्ना शर्मा की सारगर्भित कविता...  
           श्रीमती सर्वसम्मती
          उन्मत्त हुआ है उदर अरे
          ग्रीवा अतीव सकुचानी
          ठोड़ी पाकर अपना साथी
          कुछ फूली नहीं समानी

          सब अंग मोटापे के मारे
          हैं इक दूजे में खोय रहे
          कर रहे मुए अति मधुर मिलन
          और गुणा निरंतर होय रहे

          हैं बल प्रयोग जी पति जिनके
          और लठ्ठमार जी पुत्तर हैं
          ॐ नमस्चंडीकाये चंडी 
          देवी प्रभुसत्ता  ये ही हैं 

          लो निकल पड़ी शोभा यात्रा 
          श्रीमती सर्वसम्मती जी की 
          लो जली जोत से जोत चलो 
          दर्शन दुर्लभ देखें हम भी 
  
          इक पीछे एक चली मुंड़ने 
          रेवड़ की शक्ति ले उधार
          सामाजिकता की बाँय बाँय  
          या केवल भी की है पुकार?

          माँ बाबा ने जो सिखला दी 
          नैतिकताओं की टाँय टाँय 
          चल पड़े सभी रट्टू तोते 
          श्री राम राम की झाँय झाँय 

          ऊँचों की ऊंची बातें जो 
          लगती हैं इतनी मनभावन 
          क्या हुआ समझ न आयें तो
          बन्दर भी चले नकलची सब 

          क्या लदा हुआ है पता नहीं 
          पर मेहनत में पीछे न कहीं 
          ऊँघते हुए सब चले गधे 
          जिस ओर समष्टि चली वहीं 

          इस शोभायात्रा से प्यारे 
          सब ओर शांति है छाई 
          श्रीमती सर्वसम्मती की 
          सब देते चलो दुहाई. 
  

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