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रविवार, 13 मई 2012

मातृ-दिवस पर विशेष


माँ बनने का अधिकार केवल स्त्री को मिला है।इसलिए वह भयानक कष्ट को झेलकर भी माँ बनती है। गर्भ का प्रधान कार्य प्रजनन होकर भी यह स्त्री-दृष्टि और चेतना का वाहक है।स्त्री की प्रजनन-शक्ति, शिशु के निर्माण में उसके तन-मन की विराट भूमिका ही बच्चे के साथ उसके अन्तरंग सम्बन्ध की वाहक होती है। मातृत्व क्षमता उसकी अनमोल शक्ति होती है। यहीं से आरंभिक श्रम-भेद शुरू होता है।मृदुला गर्ग कृत उपन्यास 'कठगुलाब' का पात्र विपिन स्त्री की प्राकृतिक श्रेष्ठता से हतप्रभ है,''स्तनपान करने का एकाधिकार भी स्त्री के पास है।स्वार्थी-से-स्वार्थी स्त्री के पास निःस्वार्थ, निष्कलुष प्रेम कर पाने की सामर्थ्य है। ऐसी सम्पूर्ण पूंजी के होते उद्दातीकरण भला क्यों न होगा। भावनाओं का।अनुभूति का।अवश्य होगा।तभी न, बेचारा पंगु पुरुष अपनी अस्मिता सिद्ध करने के लिए इतनी उछल-कूद मचाये रखता है।''(पृ.214)

मनोविज्ञान में माँ-पुत्री के शारीरिक, कामुक समानता को घृणा के रूप में परिभाषित किया गया। इसका आधार विषमलिंगी आकर्षण को माना गया, जहाँ पुत्री माँ नहीं पिता की ओर आकर्षित होती है। जबकि सचाई यह है कि  स्त्री अपने शरीर और अपने ही जैसे शरीर के साथ ज्यादा स्वाभाविक होती है। अवचेतनगत स्तर पर माँ-पुत्री में सहज जुड़ाव होता है जो पुत्र के साथ नहीं होता।अतः स्त्रीत्व के, यौनिकता के धरातल पर स्त्री-स्त्री( माँ-पुत्री) का सम्बन्ध अधिक अनुकूल है। पुत्र विकास के क्रम में चेतन और अवचेतन स्तर पर माँ पर अपनी निर्भरता को नकारता चलता है। वह माँ के साथ अपने संबंध का दमन करता है ताकि वह भावात्मक स्वायत्तता प्राप्त कर सके। जबकि लड़कियों द्वारा इस भावात्मक स्वायत्तता को हासिल करना कहीं अधिक सरल होता है।वे लड़कों के समान 'यांत्रिक योग्यता' की बजाए सूचना और संसार के निपुण संसाधनों से युक्त होती हैं। उनकी प्रवृत्ति अभिव्यक्ति की ओर न होकर, माँ से सम्प्रेषण की ओर होती है। माँ-पुत्री के बीच सूचनाओं, बातों का अंतहीन सम्प्रेषण उनकी कामुक स्वायत्तता के साथ स्व-पहचान की डोर को भी मजबूत करता है।

कामुक-रूप से स्त्री की अर्थवत्ता को केवल मातृत्व के दायरे में या प्रजनन की क्रिया से जोड़कर देखना एकांगी दृष्टिकोण है।स्त्री का अस्तित्व पूर्ण स्त्री होने में है। केवल प्रजनन का उद्देश्य नारी के लिए काम-सुख से इतर प्रसव वेदना और मृत्यु का पर्याय बन जाता है। दूसरी ओर, माँ बनने के बाद या न बन पाने के कारण उसका लैंगिक महत्व ख़त्म मान लिया जाता है। यह मातृत्व की मूर्ति-पूजा है। इसकी परिणति जनसंख्या-वृद्धि, गर्भपात के अवांछित मामलों, स्त्री के ठस्स अकामुक व्यक्तित्व, कुंवारे मातृत्व के सामाजिक बहिष्कार के रूप में देखा जा सकता है। यहाँ यह समझना बेहद जरूरी है कि मातृत्व स्त्री की इच्छा-अनिच्छा,चुनाव,एकाधिकार,  स्वतंत्रता और दायित्व का मसला है , जिसे खुले ह्रदय से उदारतापूर्वक स्वीकार किया जाना चाहिए।       

रविवार, 6 मई 2012

'सत्यमेव जयते'


आमिर खान के कार्यक्रम 'सत्यमेव जयते' को देखकर काफी संतुष्टि मिली. कन्या भ्रूण-हत्या पर आधारित यह कार्यक्रम विभिन्न पक्षों को सामने लाता है. ऐसी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए. टेलीविजन को बुद्धू-बक्सा  बनाये जाने की होड़ के विरुद्ध यह एक प्रभावी कदम है. अपने समकालीनों से आमिर काफी आगे खड़े दिखाई देते हैं. केवल मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता और स्त्री की छवि बिगाडते कार्यक्रमों में स्त्री की जमीनी सचाई व त्रासदी से वाकिफ़ करवाना सराहनीय है. घरेलू हिंसा के विविध रूपों से भी हम रूबरू होते हैं. एक ओर माँ से पूछे बिना गर्भस्थ शिशु की हत्या करवा दी जाती है तो दूसरी ओर बच्चियां पैदा करने के अपराध के कारण औरत का चेहरा पति द्वारा बुरी तरह कुतर देने की भयावह स्थिति का सच सामने आता है, पढ़ी-लिखी तबके की स्त्री भी जुड़वाँ बच्चियों को जन्म देने के कारण पति का घर छोड़ने पर मजबूर होती है. हिंसा झेलती स्त्रियाँ, उनके विविध परिवेश के बावजूद एक समान कष्ट हैं. शोषण और उत्पीडन के अनेक शारीरिक, मानसिक रूपों के साथ, लगातार होती भ्रूण-हत्या के प्रभावों की भी चर्चा की गयी...मसलन, लड़कों का कुंवारा रह जाना, स्त्रियों की खरीद-फ़रोख्त, देह-व्यापार की समस्या. इसके चिकित्सकीय धन्धेखोरी को भी उजागर किया गया. जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं  द्वारा यह सच भी सामने आया कि  यह जघन्य अपराध उच्च वर्गों में ज्यादा है,निम्न वर्गों की बनिस्बत. आमिर ने आंकड़ों की उलझनों को आसान तरीके से रखकर समस्या की विकरालता को ठीक ढंग से रेखांकित भी किया.
मुझे इसका फॉर्मेट अच्छा लगा. केवल इतना कि यह बताया जाना भी जरुरी था कि 1):गर्भपात करवाना न केवल वैध है बल्कि यह स्त्री के व्यक्तिगत चुनाव और अधिकार का भी मसला  है. 2): भ्रूण-परिक्षण के खिलाफ बने कानून पी.सी.पी.एन.डी.टी. एक्ट (प्री कंसप्सन एंड प्री नेटल डैग्नोस्टिक टेक्निक एक्ट) के प्रति जागरूकता अनिवार्य है. टेलीविजन की पहुँच का इस्तेमाल 'जेंडर  सेंसिटाईजेसन' के साथ एक नागरिक के तौर पर स्त्री के अधिकार व उपलब्ध कानूनों की जानकारी को सुदूर क्षेत्रों तक पहुँचाने के लिए किया जा सकता है. अंत में, हम तहे दिल से आमिर के इस कार्यक्रम का स्वागत करते हैं... यह अच्छे कलेवर से सम्पन्न है. मेहनत  से इसे बनाया गया है. समय के साथ यह और भी महत्वपूर्ण पहलूओं के साथ उपस्थित होगा, यही कामना है.