सुनो, बार-बार कहा है तुमसे
कि नहीं सही जातीं प्यार के
नाम पर जब-तब तुम्हारी प्रतिहिंसा.
तुम्हारे अभिमान के तीखे नाखून
गड़े हैं मेरी देह में इधर-उधर
तितर-बितर हो गयी है मेरी
सुनहली ज़रीदार चुन्नी ...
मटमैला हो गया है मन
बालों में अनचाही चिलचिलाती
धूप बरसती है बरबस .
चेहरे पर न जाने कितने
मुहाँसे यों ही फूट पड़े हैं
आँखों में काजल टिकता ही नहीं
पलकों में उतर आई है घनी काली रात
होठों की पपड़ियों ने खुशगवार
हौसलों को बांध दिया है
अछोर अकेलेपन में उबकाई
से भर जाता है मेरा जिस्म
ये जो मेरे गाल पर काला तिल है ना
अब उतना काला नहीं दिखता...
(जानती हूँ तुम्हें काला रंग पसंद है).
क्या कभी जान पाओगे कि, हम स्त्रियाँ
नहीं जानतीं, तुम जैसों का प्यार...
क्या होता है? कैसा होता है?
कैसे यह हमें बंजर बनाता
रोज़ नए-नए उपनिवेश गढ़ता है.
सच कहूँ, हमारे तई, प्रेम में होना
सम्मान में होना है, सम्मान ...
जिसकी गाढ़ी कमी लगती है
तुम लोगों के पास .
तुम्हारे गहरे प्यार(?) के छिछले प्रतिशोध
में उतराती मेरी चेतना ने बचा हुआ
निजी शेष वापस माँगा है तुमसे.
मुझे बातें करनी है हरे रंग के बारे में
जो तुम्हें नहीं, मुझे बहुत पसंद है.
फिर टांकना है लिबास पर सारे सितारे
बुनने हैं कोरे, चटकीले अपने सपने
करनी हैं ढ़ेर सारी खरीदारी..तुम्हारे बिना.
देखो, तुम्हारे प्यार ने मुझे
बेइंतहा बदसूरत बना दिया है
और ये बदसूरत औरत
तुम्हारे प्रेम, पसंदगी, इच्छाओं की
गौरव-गाथाओं के विरुद्ध खड़ी है.
क्योंकि,
मसला अब केवल तुम्हारे
प्रेम का नहीं रहा ...