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शनिवार, 12 मार्च 2011

पुरानी कविता भी कई बार नए सन्दर्भों में प्रासंगिक हो जाती है. डायरी के पन्ने पलटते हुए यकबयक हमारी नज़रों के आगे अतीत,वर्तमान .भविष्य के अनेकानेक चित्र घूमने लगते हैं ...ऐसा ही एक कोलाज मेरी यह कविता पेश करती है, बिना किसी फेरबदल के. केवल शीर्षक को मैंने बदल दिया है. पहले शीर्षक था 'अणिमा : एक अभिनव कोलाज', जिसे परिवर्तित कर 'अणिमा + अभिनव = एक कोलाज' के रूप में प्रस्तुत कर रही हूँ. कारण कि अणिमा कि सार्थकता मैं केवल अभिनव तक नही मानती, वह उसके परे भी बहुत कुछ है. उसका व्यक्तित्व, अस्तित्व, उसकी पहचान केवल एक पुरुष, एक सम्बन्ध नही हो सकता. यह कोलाज मात्र झलक भर है...उसका होना ज्यादा होना है...
          अणिमा + अभिनव = एक कोलाज  
        अणिमा जानती है कि
           नहीं भरते शब्दों अर्थों
           संख्याओं के अंतराल ...
           दरक जाती है अणिमा
           अपने और गांठ में बंधे
           अपनों के वजूद के साथ,
           भूल नहीं पाती कि
           जब सम्बन्ध साँस लेना
           बंद कर देते हैं तो
           वजूद कैसे नीला पड़ जाता है
           और भीतर बहता रक्त
           सफ़ेद.
           *           *         *
          एकदूसरे  के हाथों को थामे
          वह, महसूसती है
          अभिनव के हाथों का
          पथरीला स्पर्श, अनचाहा
          कठोर दबाव
          ...     ...   ...
          पुर्जे-पुर्जे होते
          अणिमा
          अभिनव.
          *           *         *
          छूटती जाती राहें
          बीतते, बिताते क्षण
          बस, नहीं बीतते
          क्योंकि नहीं बीतता
          कभी भी, कुछ भी
          अणिमा ने सुना ,
         'आवश्यकता मात्र
          टटोलने की है'
          तभी,
          यकायक, बीत गया
          अपनी पूरी पूर्णता के
          साथ
          अभिनव.

 

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