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मंगलवार, 29 मार्च 2011

फिलिस्तीन के राष्ट्रीय कवि महमूद दरवेश की रचनाएँ देशप्रेम और उस पर इजरायली कब्जे की पीड़ा से सराबोर हैं. उनकी कविता देश-निकाला झेलते आदमी की तकलीफ ही नहीं बल्कि उसके प्रतिरोध को भी व्यक्त करती है.पेश है उनकी एक महत्वपूर्ण कविता का अनुवाद...
          मैं वहाँ से आया हूँ 
          मैं वहाँ से आया हूँ और मेरे पास स्मृतियाँ हैं,
          मैं औरों की तरह नश्वर हूँ और मेरे पास माँ है,
          और है एक घर अनेक खिडकियोंवाला,
          मेरे पास भाई, बंधु हैं
          और एक कारागार भी है, जिसकी
          खिड़कियाँ सर्द हैं.
          वह लहर भी मेरी है जिसे अभी-अभी
          समुद्री चिड़िया ने निगल लिया है,
          मेरे पास मेरे विचार हैं,
          और एक अतिरिक्त घास की पत्ती भी.
          शब्दों के दूर तक फैले किनारे पर बैठा,
          वह चन्द्रमा भी मेरा है,
          और चिड़ियों की अनकही उदारता,
          और जैतून वृक्ष की अकल्पनीय अनश्वरता भी.
          जिस भूमि, पर मैंने तलवारों के साये में गति पाई है
          उसका जीवंत शरीर अब निष्क्रिय बोझा भर है.
          मैं, मैं वहाँ से आया हूँ.
          मैंने खुले आकाश को उसकी माँ को सौंप दिया है,
          जब वह माँ के लिए विलाप कर रहा था.
          और मैं भी रोया,
          लौटते बेसब्र बादल को अपनी पहचान बताने के लिए.
          मैंने रक्त के आँगन में लिथड़े सारे शब्द सीख लिए हैं,
          ताकि भंग कर सकूँ नियमों को.
          मैंने सारे शब्दों को कंठस्थ कर उन्हें
          खंडित कर दिया है ताकि
          नवीन शब्द-सृजन कर सकूँ: मातृभूमि... .
 

शनिवार, 26 मार्च 2011

ज्योत्स्ना शर्मा की कविता 'प्रेम है उसकी पूँजी' औरत के जीवन में प्रेम और उसके विसंगत उपादानों की चर्चा करती है. इस कविता को पढ़ते हुए स्त्री का बेढब जीवन आँखों  के सामने साकार होने लगता है. उसके प्रेम को पारस्परिकता, साहचर्य, समानता से इतर आत्मत्याग, बलिदान, स्वार्थहीन सम्पूर्ण समर्पण से जोड़ दिया जाता है. नियमित जीवनक्रम, अनुशासित भूमिका में उसका बहुरंगी व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है. वह अंततः अनजानी, अगम्य ही बनी रह जाती है.पूर्वनिर्मित भूमिकाओं की अत्यधिक वांछनाओं ने उसे व्यक्तित्वहीन, अभिव्यक्तिहीन बना दिया है. यह कविता स्त्री के खो जाने के दुःख को व्यक्त करती है.
                    प्रेम है उसकी पूँजी 
                    प्रेम है उसकी पूँजी
                    जैसे गरीब की पूँजी है ईमान
                    वो काया को पिघला कर
                                              ढालती है चरखा
                    दुःख और दहशत की पूनियों से
                    बुनती है प्रेम का दर्शन
                                              जिसे सब जानते हैं.
                        
                    करुणामय ईश्वर के बाज़ार में
                    वो आती है सम्हाले हुए
                    गरीबी की आन
                    उसकी पूँजी एक सिफ़र बन जाती है
                    जिससे वो गुणा होती जाती है
                    फिर भी संतोष से
                    मुस्कुराती है उसकी अगाध ममता.
                    हिसाब के बाद
                    बार बार आते
                    अवशिष्ट अंक सी
                    वो खाते के बाहर छूट जाती है
                    फिर भी अपना दर्शन भूल नहीं पाती है
                    यही है उसके प्रेम का इतिहास
                                               जिसे सब जानते हैं.

                    बाक़ी जो है वो झूठ साबित की गई
                     एक सचमुच की गरिमा है
                     कत्ल किये गये जीवन में तड़पती
                     जीवन के प्रति अपार श्रद्धा है
                     एक अज्ञात अमृत है जो खप गया
                     भेड़ियों की डकार  में

                    ये उसकी कविता है
                    जिसे कोई नहीं जानता.  
 
 

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

फिलिस्तीनी कवि ताहा मुहम्मद अली की कविता 'पेट्रोलियम की नसों में जमा खून' का अनुवाद इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुका है. आज उनकी एक अन्य कविता का अनुवाद प्रस्तुत है. ताहा की खासियत यथार्थ को महसूस करने की शक्ति और उसे बरतने का निराला ढब है. उनकी सधी भाषा की त्वरा भी कवि के काव्य-विवेक की सूचक है.
          चेतावनी 
          शिकार के प्रेमियों,
          और शिकार पर आँख गड़ाए नये शिकारियों:
          तुम्हारे बन्दूकों को मेरे
          सुखों से दूर रखना,
          जिनका मूल्य तुम्हारी एक गोली भर भी नहीं
          (जो तुम इन पर बर्बाद करोगे)
          तुम्हें क्या लगता है
          मृग-शिशु के समान
          चपल और क्षिप्र,
          तीतर के समान हर
          मार्ग से गुजरनेवाली,
          क्या वह ख़ुशी नहीं, सुख नहीं.
          मेरा विश्वास करो:
          मेरे सुख का सम्बन्ध
          सुख से नहीं है. 

गुरुवार, 24 मार्च 2011

ज्योत्स्ना शर्मा की एक अत्यंत प्रखर कविता 'श्रीमती सर्वसम्मती' है. स्त्री के होने में, उसकी पहचान में सबकी सम्मति का अतिरिक्त बोझ जरूर होता है. फिर चाहे वह पिता,भाई,पति,पुत्र का हो या असमानता ग्रसित समाज का. औरत होने के नाते वह सबकी वांछा, आवश्यकता को ढोते हुए ऑप्शनल की भूमिका निभाती रह जाती है. पेश है ज्योत्स्ना शर्मा की सारगर्भित कविता...  
           श्रीमती सर्वसम्मती
          उन्मत्त हुआ है उदर अरे
          ग्रीवा अतीव सकुचानी
          ठोड़ी पाकर अपना साथी
          कुछ फूली नहीं समानी

          सब अंग मोटापे के मारे
          हैं इक दूजे में खोय रहे
          कर रहे मुए अति मधुर मिलन
          और गुणा निरंतर होय रहे

          हैं बल प्रयोग जी पति जिनके
          और लठ्ठमार जी पुत्तर हैं
          ॐ नमस्चंडीकाये चंडी 
          देवी प्रभुसत्ता  ये ही हैं 

          लो निकल पड़ी शोभा यात्रा 
          श्रीमती सर्वसम्मती जी की 
          लो जली जोत से जोत चलो 
          दर्शन दुर्लभ देखें हम भी 
  
          इक पीछे एक चली मुंड़ने 
          रेवड़ की शक्ति ले उधार
          सामाजिकता की बाँय बाँय  
          या केवल भी की है पुकार?

          माँ बाबा ने जो सिखला दी 
          नैतिकताओं की टाँय टाँय 
          चल पड़े सभी रट्टू तोते 
          श्री राम राम की झाँय झाँय 

          ऊँचों की ऊंची बातें जो 
          लगती हैं इतनी मनभावन 
          क्या हुआ समझ न आयें तो
          बन्दर भी चले नकलची सब 

          क्या लदा हुआ है पता नहीं 
          पर मेहनत में पीछे न कहीं 
          ऊँघते हुए सब चले गधे 
          जिस ओर समष्टि चली वहीं 

          इस शोभायात्रा से प्यारे 
          सब ओर शांति है छाई 
          श्रीमती सर्वसम्मती की 
          सब देते चलो दुहाई. 
  

बुधवार, 23 मार्च 2011

रचनाकार- ज्योत्स्ना शर्मा  ('जलसा' पत्रिका से) 
मेरा घर 
         मेरी पीठ पर
         एक निर्दय व्यंग्य भरी दृष्टि डालता
         घर खड़ा रहता है चुप

         घर
         एक मृत पक्षी, एक गूंगी चिड़िया
         मेरी इन्द्रियों पर
         कोहरा तानता हुआ
         घर एक क्रोधित कोढ़ी

        सड़कों पर घेर लेते हैं मुझे
        घर के शाप, अदृश्य प्रेतों की तरह
                         अचानक हमला करते
        बिबिलाते हुए जब मैं लौटती हूँ घर वापस
        अपने घाव सहलाता देखता है वो मुझे
                         ठंडी ममता से
                         ठंडी व्यथा से
                         ठंडी घृणा से

       मुझ पर हैं घर के शाप
       मेरे घर पर हैं किसके शाप?  
 
 
 

मंगलवार, 22 मार्च 2011

                                           ज्योत्स्ना शर्मा 
 अनियतकालिक पत्रिका 'जलसा' में कवयित्री ज्योत्स्ना शर्मा की मार्मिक और विशिष्ट कविताएँ हाथ लगीं, मन हुआ आपसे भी साझा करूँ. आगामी पोस्ट में उनकी कविताएँ ही होंगी ताकि स्त्री के निजी संसार और उसकी अन्यतम भाषा, अभिव्यक्ति से आप नवीन रूप में परिचित हो सकें...
 ११मार्च १९६५ को अलीगढ़ में जन्मी हिंदी ज़बान की प्रतिभाशाली रचनाकार ज्योत्स्ना शर्मा का २३दिसम्बर २००८ को दुखद परिस्थितियों में निधन हो गया. उनकी रचनाएँ हाल ही में छपना शुरू हुई हैं. कवि-फ़िल्मकार देवीप्रसाद मिश्र उनके जीवन और कृतित्व पर फिल्म बना रहे हैं. (परिचय और कविता 'जलसा' पत्रिका से साभार ली गयी है. सम्पादक- श्री असद ज़ैदी)
             गुमनाम साहस 
           वयस्कों की दुनिया में बच्चा
           और पुरुषों की दुनिया में स्त्री
           अगर होते सिर्फ योद्धा
           अगर होती ये धरती सिर्फ रणक्षेत्र
                                    तो युद्ध भी और जीत भी
           आसान होती किस कदर;
           लेकिन मरने का साहस लेकर
           आते हैं बच्चे
           और हारने का साहस लेकर
           आती हैं स्त्रियाँ
           ऐसा साहस जो गुमनाम है
           ऐसा विचित्र साहस जो लील जाता है
                                     समूचे व्यक्तित्व को

           और कहते हैं वो जो मरा और हारा
                                     कमज़ोर था
           कि यही है भाग्य कीड़ों का;

           ऐसी भी होती है एक शक्ति
           उस छाती में जिसपर
           हर रोज़ गुज़र जाती है
                                एक ओछी दुनिया.
  
                                                                                                                                   क्रमशः...
 

सोमवार, 21 मार्च 2011

पेश है एन्द्रिनी रिच की एक महत्वपूर्ण कविता का अंग्रेज़ी से अनुवाद...
                                     शक्ति 
          पृथ्वी पर जीवित होना इतिहास में संचित होना है

          आज एक विशाल यन्त्र ने धरती के पार्श्व को
          टुकड़ा-टुकड़ा खोल दिया है
          गहरे पीले रंग की एक शीशी पिछले सौ वर्षों से उपचार
          कर रही है ज्वर या खिन्नता का, एक औषधि है
          इस मौसम की सर्दियों में यहाँ मौजूद प्राणियों के लिए.

          आज मैं मेरी क्यूरी के बारे में पढ़ रही थी:
          वह जरूर जानती रही होगी कि वह किरणों के 
          विकिरण से अस्वस्थ हो गयी है 
          सालों उसकी देह ने इस तत्व की बम वर्षा को झेला था
          उसने स्वच्छ कर दिया था 
          ऐसा जान पड़ता है उसने अंत को नकार दिया था 
          उसकी आँखों में हुए मोतियाबिंद के स्त्रोत को
          उँगलियों के कोरो की चटकन और मवाद को 
          यहाँ तक कि वह टेस्ट ट्यूब या पेन्सिल पकड़ने 
          में भी असमर्थ हो गयी 

         वह मर गयी, एक ख्यातिलब्ध स्त्री नकारती रही 
         अपने घावों को 
         नकारती रही 
         अपने घावों को जिनका उदगम वहीं से हुआ था जहाँ से उसकी 
         अजस्त्र शक्ति का.
          
 



          
            
         

रविवार, 20 मार्च 2011

पिछले क्रम को आगे बढ़ाते हुए पेश है एन्द्रिनी रिच की एक अन्य कविता का अनुवाद ...
                                    जीत 
          भीतरी तहों में कुछ पसर रहा है, हमसे अनकहा
          त्वचा के अंदर भी उसकी उपस्थिति अघोषित है
          जीवन के समस्त रूप-प्रत्यय नाटकीय स्वार्थों की
          सघन झाड़ियों में उलझे मशीनी देवताओं से सम्वाद
          नहीं करना चाहते, स्पष्टतः कटे-छटे शरणार्थी
          प्राचीन या अनित्य ग्रामों से हमारे अवसरवादी
          चाहनाओं में फंसे पगलाकर ढूँढ़ रहे हैं
           एक मेजबान एक जीवनरक्षक नाव

          अचानक ही वह कला, हम एकटक तकते रहे थे, की बजाय
          व्यक्ति चिन्हित किये जा रहे हैं और चर्च की पावन पारदर्शिता
          दागदार हो गयी है
          क्रूर नीले, बैंगनी बेलबूटों, संक्षिप्त पीले रंग में सनी
          एक सुंदर गाँठ.

शनिवार, 19 मार्च 2011

प्रख्यात (अमेरिकी) नारीवादी एंद्रिनी रिच कला के कोस्मेटिक उपयोग के खिलाफ हैं. कला और साहित्य को अलंकरण और सत्तावानो की गुलामी से इतर व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ती हैं. आरम्भिक कविताओं में भावुकतापूर्ण अभिव्यक्ति के बावजूद उनकी भाषा में स्त्री सम्वेदना का सहज स्पर्श दिखता है.आगे चलकर लगभग १९६० के करीब उनकी कविताएँ प्रतिरोधी चेतना का सकारात्मक विकास करती हैं.समाज में स्त्री की भूमिका, जातिवाद ,वियतनाम युद्ध जैसे मुद्दों पर लिखते हुए उन्होंने औरत स्थिति व समाज की संरचनागत विषमता के मूल तत्वों को डिकोड किया हैं .ऐसा करते हुए वे अपनी सशक्त भाषा में मान्य व्यवस्थागत अभिरुचियों को तबाह करती चलती हैं.एंद्रिनी की ताकत सच कहने की अकूत शक्ति है. आगे प्रस्तुत है उनकी दो महत्वपूर्ण कविताओं के अनुवाद.
           औरतें 
          मेरी तीन बहनें काली शीशे-सी चमकीली
          लावे की चट्टानों पर बैठी हैं.
          पहली बार, इस रोशनी में, मैं देख सकती हूँ वे कौन हैं.

          मेरी पहली बहन शोभा-यात्रा के लिए अपनी पोशाक सिल रही है.
          वह एक पारदर्शी महिला की तरह जा रही है
          और उसकी सभी शिराएँ देखी जा सकेंगी.
 
          मेरी दूसरी बहन भी सिल रही है,
          उसके हृदय की फांक को जो कभी पूरी तरह नही भरा,
          अंततः, वह आशान्वित है,उसकी छाती का यह कसाव ढीला होगा.

         मेरी तीसरी बहन लगातार देख रही है
         समुद्र में सुदूर पश्चिमी छोर तक फैली गाढ़ी-लाल पपड़ी को.
         उसके मोज़े फट गये हैं, फिर भी वह सुंदर है.


        हमारा समूचा जीवन 
         हमारा समूचा जीवन जायज़
         मामूली झूठों का अनुवाद हैं.
    
         और अब असत्यों की गांठ स्वयं को
         ही निरस्त करने के लिए कुतर रही है

         शब्द ही शब्द को डँस रहे हैं
  
         सारे अभिप्राय जलती मशाल की
         लपटों में बदरंग हो गये हैं

         वे सभी बेजान चिट्ठियां
         जो उत्पीड़कों की भाषा में अनुदित थीं

         डॉक्टर को अपनी पीड़ा बताने की कोशिश
         करते अल्जीरियन की भांति हैं
         जो अपने गाँव से हल्के मखमली
         कम्बल में लिपटा

        सम्पूर्ण दग्ध देह के साथ दर्द से
        घिरा चला आया है
        और उसके पास बयान के लिए कोई शब्द नहीं है

        सिवाय खुद के.
          

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

पूंजीवाद के ऐतिहासिक विकासक्रम में व्यक्ति, व्यक्ति-चेतना, वैयक्तिकता, व्यक्तिवाद का विकास हुआ है. या यों कह लें यह पूंजीवाद जीत है, आधुनिक होने की पहली शर्त भी. इस व्यक्तिनिष्ठता में अलगाव है अकेलापन नहीं, नकारात्मक क्षरण नहीं सकारात्मक शक्तिसम्पन्नता है. इयत्ता-चेतना के साथ साहचर्य, साथी,सपने,लक्ष्य,संकट,संघर्ष व्यक्ति पूर्णता की परिधि को पूरा करते हैं. आज पुनः मेरी एक छोटी कविता प्रस्तुत है-
                      सपना 
                 सुबह की धुंध में चलते हुए
                 उलझते कदमों ने महसूस किया-
                 शब्द कम पड़ने लगे हैं.
                 सिरसिरा रहा है नसों मे
                 एक पूरा सदेह सपना.
                 कांपते हाथों से मैंने
                 झुककर उठा लिए हैं
                 सारे जोखिम
                (सदेह सपने के लिए)
                और थपथपाकर छोड़ दिया है
                बेआवाज़ आश्वासनों को.
                आज ही भेजा है उसने
                अक्षरों में लिपटा
                दूरगामी सहलाता स्पर्श
                इधर-उधर ठूंसकर भरे
                गये अछोर समर्थन, अनकहे
                दरम्यानी निश्छल एकांत
                ढ़ेर सारा अछूता प्यार.
                आँखों में उतराने लगी है
                स्वप्निल तरलता
                हाँ, बधने लगी है मुट्ठी
                अब तो
                निहत्था मैं भी नहीं.   
                                जापान की त्रासदी और हम 
कुल जमा सात दिन पहले जापान में आये भीषण भूकम्प और तत्पश्च्यात सुनामी की लहरों के तांडव ने अनेक शहरों का समूल नाश ही नहीं किया बल्कि पूरे विश्व को भी हतप्रभ कर दिया है.बाद के दिनों में परमाणु ऊर्जा व रेडिएशन के खतरे ने विकास के नाम पर राष्ट्रों द्वारा परिचालित सुरक्षा के ढोंग को भी उघाड़ दिया है. 'सम्वाद' के इस मंच से हम जापान की त्रासदी पर हार्दिक दुःख व्यक्त करते हैं. इस परिघटना ने अंधाधुंध परमाणु विकास में छिपी अमानवीयता को उजागर कर दिया हैं.परिवेश और प्रकृति के अधिकाधिक शोषण ने अंततः सर्वनाश का मार्ग खोल दिया हैं. परमाणु ऊर्जा के वश्विक संकट ने एकाएक देशों की शक्ति, विकास,सुरक्षा पर नई बहस शुरू कर दी है. अब सचमुच सचेत होने की आवश्यकता है. हमें मानव सहित विकास चाहिए या मानव रहित?   

गुरुवार, 17 मार्च 2011

                                  मित्रता का स्त्रीवादी मर्म                             
समस्त मानवीय संबंधों में मित्रता सबसे महत् संबंध है। यह साथ, साहचर्य, सहयोग, पारस्परिकता एवं स्वतंत्रता पर आधारित विशुध्द रूप से सकारात्मक संबंध है। जीवन की अनेकानेक पूर्णताओं के बावजूद मित्रहीन जीवन स्वीकार्य नहीं होता। स्वतंत्रता का विवेक, निजी व अन्य की अस्मिता का सहज, स्वाभाविक स्वीकार मित्रता के स्वरूप को प्रगाढ़ बनाते हैं। इसमें प्रेम के एकाकीपन, परनिर्भर संकीर्णता, ईर्ष्या से विलग व्यापकता का बोध अधिक है। अरस्तू ने 'निमोकियन एथिक्स' की आठवीं और नौवीं पुस्तकों में 'मित्रता' को नैतिक गुण माना है, जो एक जैसे उत्तम गुणधर्म वाले व्यक्तियों में होती है। आठवीं पुस्तक के तृतीय और चतुर्थ अध्यायों में मित्रता को परिभाषित करते हुए अरस्तू कहते है यह विस्तृत रूप में ऐसी अवस्था या स्थिति है जहाँ दो व्यक्ति एक दूसरे की भलाई की कामना करते हैं। वे मित्रता के तीन विभेद भी स्वीकार करते है जहाँ स्नेह का आधार भिन्न होता है। पहली प्रकार की मित्रता उपयोगिता पर आधारित है तथा दूसरे प्रकार की आनंद पर। उपयोगिता के आधार पर की गई मित्रता में हम उस व्यक्ति के मित्र होंगे तो हमारे लिए उपयोगी होगा। यहाँ स्नेह का आधार मित्र नहीं बल्कि उसकी उपयोगिता है। दूसरी प्रकार की मित्रता भी मित्रों से नहीं वरन् उनसे मिलनेवाले आनंद को आधार बनाकर विकसित होती है। यहाँ आनंद प्रधान है मित्रता नहीं। तीसरी और वास्तविक मित्रता, अरस्तू के अनुसार, नेकी या भलाई पर आधारित होती है। इसमें मित्र प्रमुख होते हैं। गुणी मित्रों की हित कामना करना ही सच्ची मित्रता है। यह हित कामना भी मित्र के स्वभाव और वास्तविक स्थिति अर्थात् वह क्या है, कैसा है, पर आधारित होनी चाहिए। यह आकस्मिक समझदारी और विचार पर आधारित नही होनी चाहिए। अत: मित्रता का वही रूप आदर्श होता है जब हम मित्र के प्रति स्नेह उसकी अच्छाई के कारण महसूस करते हैं। उनके उपयोग या आनंद के कारण नहीं।

अरस्तू आदर्श मित्रता के लिए अच्छाई के साथ समानता को भी आवश्यक मानते है। यह मान्यता बहुप्रचलित सिनेमाई मुहावरे 'विपरीतों का आकर्षण'(अपोजिट्स अटरैक्ट) से बिल्कुल उलट है। पारस्परिकता के लिए समान होना आवश्यक है। यह समानता 'नेकी'/'अच्छाई' की होनी चाहिए। जब मित्र एक-दूसरे को, उनकी अच्छाई को महत्व देते है तभी दोस्ती चिरायु होती है। इसके साथ ही वे यह रेखांकित करना नहीं भूलते कि सच्ची दोस्ती दुर्लभ है क्योंकि भले और गुणी इंसान भी विरल हैं। मित्रों को एक-दूसरे को जानने, समझने एवं चरित्र की पहचान करने में काफी समय लगता है। ताकि वे एक-दूसरे पर विश्वास कर सकें। अत: आदर्श मित्रता के लिए अच्छा दिखने से ज्यादा अच्छा होना अधिक महत्वपूर्ण है। अरस्तू ज़ोर देकर कहते है कि बुरे और दुर्गुणी लोगों के बीच सच्ची मित्रता नही हो सकती है कारण कि वे हमेशा उपयोग व आनंद के इच्छुक होते हैं।
 
अच्छे मित्र साथ में समय गुजारना पसंद करते हैं। एक दूसरे के साथ का आनंद लेते हैं। गौरतलब है कि मित्र के साथ मूल्यवान समय की साझेदारी ही मित्रता को प्रगाढ़ बनाती है। यदि किसी की भलाई की कामना करते हुए भी हम उसे पसंद नहीं करते या उसके साथ समय व्यतीत नही करते तो यह मित्रता नही है क्योंकि यहाँ मित्रों के बीच मूल्यवान समय की साझेदारी गायब है। वास्तविकता यही है कि हम अपने मूल्यवान समय को स्वयं के लिए चुराकर रखते है तथा बाकि बचे हुए, थके हुए मूल्यहीन समय की साझेदारी करते हैं। संबंधों के खोखले होने का रोना भी रोते हैं। मित्रता ही नही किसी भी संबंध में मूल्यवान समय की साझेदारी की ज़रूरत सबसे ज्यादा है, उसकी जगह धन, संपदा और मौखिक प्यार कभी नहीं ले सकता। आदर्श मैत्री मित्रों की निजी इयत्ता को नष्ट नही करती। मित्र निजी अस्मिता को जीते हुए उससे भी परे की अच्छाई 'गुड' की ओर उन्मुख होते हैं।

समानता को अत्यधिक महत्व देने के कारण अरस्तू धनवान-दरिद्र, राजा-रंक, बुद्धिमान-मूर्ख व्यक्तियों में आदर्श मैत्री को असम्भव मानते हैं। उनका मानना है  दो व्यक्तियों में गुण, धन, स्वभाव, विवेक या किसी अन्य व्यवहार की अत्यधिक भिन्नता उन्हें मित्र नहीं रहने देती। एन वार्ड का मानना है  अरस्तू के इस आदर्श मित्रता की धारणा समस्याप्रद है। ऐसा लगता है मानो यह केवल पुरूषों के लिए उपयुक्त है। कारण कि परिवार में पति-पत्नी के बीच अपूर्ण मैत्री संबंध होते हैं। इसके अलावा अच्छे पुरुष का प्रेम दूसरों की बनिस्बत स्वयं से अधिक होता है।

अरस्तू 'निमोकियन एथिक्स' की आठवीं पुस्तक के सप्तम अध्याय में शारीरिक, मानसिक धरातल पर भिन्न स्त्री व पुरुष के बीच दोषपूर्ण मैत्री को रेखांकित करते हैं। दो असमान इयत्ता वाले संबंध में वरिष्ठ संगी कनिष्ठ का ज्यादा स्नेह पाएगा जबकि कनिष्ठ को वरिष्ठ से कम प्यार मिलेगा। यह अपूर्ण मैत्री पिता-पुत्र, आयु में बड़े-छोटे, शासक-शासित और पति-पत्नी के बीच होती है। पति-पत्नी के बीच की मित्रता का सच्चा या दोशपूर्ण रूप प्रथमत: परिवार के बीच में ही उभरता है। उनका मंतव्य है कि पति-पत्नी के बीच का संबंध 'अभिजात्य' होता है। असमान संबंधों पर आधारित होता है। इस अभिजात्य संबंध में स्त्री अल्पतंत्र में होती है एवं पुरुष गुणवान, कुलीन, श्रेष्ठ शासक होता है। परिवार में औरत का कोई निर्णय अन्तिम और महत्वपूर्ण नहीं होता। अत: इस अर्थ में पति-पत्नी आदर्श मित्रता के मानकों तक नही पहुँचते।

यहाँ यह समझना जरूरी है कि अरस्तू परिवार की इकाई को राजनीतिक संबंधों से भिन्न और इतर मानते है और यह कि किसी भी राजनीतिक समुदाय से अलग परिवार के सदस्यों के बीच मित्रता अधिक स्वाभाविक व सहज होती है। उसमें किसी प्रचलित रीति या शासन पध्दति की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि वे पति-पत्नी में गुणात्मक अंतर मानते हुए भी उनकी सहजवृत्ति तथा जैविक ज़रूरतों को चिह्नित करते हैं जिसे प्रकारान्तर से मित्रता का आधार भी माना जा सकता है। उनका कहना है कि पति-पत्नी में मित्रता स्वाभाविक रूप में होती है। पुरुष सामान्यतया जोड़े में रहना अधिक पसंद करते हैं बजाए सामाजिक या राजनीतिक इकाई के रूप में रहने के। क्योंकि घरेलू जीवन प्रारम्भिक व अपरिहार्य रूप में उनसे जुड़ा होता है और प्रजनन एक ऐसा बंधन है जो सभी जीवितों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

यह कामुक,प्रजनन संबंध स्त्री-पुरुष की मित्रता के प्राकृतिक आधार हैं। बच्चों की उपस्थिति से यह संबंध प्रगाढ़ व सुदृढ़ बनता है। बच्चे के अभाव में विवाह बंधन शीघ्र टूट जाते हैं। स्त्री-पुरुष समस्त जैविक भिन्नताओं के बावजूद पुनरुत्पादन करते हैं जो उनकी साझा उत्पत्ति है। वे साथ रहकर पुनर्रुत्पादन ही नहीं करते वरन् जीवन की आवश्यकताओं को सुरक्षित भी करते हैं। एकदूसरे को
संतुष्टि और आनंद देते हुए वे नवीन निर्माण करते हैं। यह मैत्री उपयोगी तथा आनंददायक तो है ही साथ ही स्त्री-पुरुष के सद्गुणी होने पर यह उत्कृष्ट भी है।

एन वार्ड अरस्तू के आदर्श मैत्री संबंध को स्त्री-पुरुष के मध्य न देखकर माँ और बच्चे के बीच देखती हैं। अत: उनका नजरिया अन्य विचारकों जैसे ली बैरडषॉ, नैंसी तुआन, बारबरा टोवे और जार्ज टोवे, अरलेन सैक्सोन्हाउस से भिन्न है। ये सभी विचारक अरस्तू की मित्रता की अवधारणा को औरत-मर्द के संदर्भ में देखते हुए नैतिक, राजनीतिक और दार्शनिक क्रियाकलापों के परिप्रेक्ष्य में स्त्री के स्वभाव और संभावनाओं को देखते हैं। वे स्त्री को प्राकृतिक रूप में बुद्धिहीन, सांस्कृतिक तौर पर अनुकूलित, अबाधित भावनाओं एवं नैतिक दौर्बल्य से ग्रसित मानते हैं। जबकि एन वार्ड का नजरिया मैरी पी. निकोल्स, हैराल्ड एल लेवी से साम्य रखता है। जो मानते है कि अरस्तू घर-परिवार में पुरुष के समान स्त्री की समान हिस्सेदारी की माँग करते हैं। निकोल्स के अनुसार, अरस्तू दोनों लिंगों के बीच की समानता को स्वीकार करते हैं और राजनीतिक समानता व न्यायपरकता की बात करते हैं। दोनों लिंगों की भिन्नता में भी साझे नियमों के गठन की बात करते हैं। लेवी के अनुसार, अरस्तू महिलाओं के द्वारा राजनीतिक नियम का क्रियान्वयन परिवार में ही नहीं नगर में भी चाहते हैं। ताकि औरतें राजनीतिक शक्ति हासिल कर सकें।

मातृत्व के संदर्भ में सैक्सोन्हाउस और डैरेल डाब्स का मंतव्य है कि मातृत्व ही वह कारक है जिसके कारण अरस्तू स्त्री को पुंस सार्वजनिक क्षेत्रों से दूर रखना चाहते हैं। बच्चों का पालन-पोषण, घरेलू कार्य स्त्री को इतना अवकाश नहीं देते कि वह राजनीतिक विमर्श तथा नागरिक हिस्सेदारी को निभा सकें। इसके विरोध में एन वार्ड का कहना है  'अरस्तू प्रत्यक्षत: स्त्री को आदर्श मैत्री के उपयुक्त नहीं मानते किंतु मातृत्व पर दिए गए उनके वक्तव्य में मातृभाव मित्रता के एक रूप में सामने आता है। जो स्त्री को खोलता है, उसे मुक्त करता है साथ ही उसे राजनीतिक, नैतिक एवं दार्शनिक जीवन के लिए विशेष तौर पर तैयार करता है। यह औरत के स्व का सर्वोत्कृष्ट रूप है जिसके मूल में नि:स्वार्थ भलाई की कामना सन्निहित है। अत: मेरे इस विश्लेषण में आंशिक रूप में ही सही अरस्तू से इस प्रश्न का जबाव, कि महिलाएँ 'आदर्स मित्र' हो सकती हैं, मिलता है। स्त्री की मित्रता-क्षमता के प्रश्न पर पूर्ण उत्तर भले न मिला हो परन्तु मातृत्व की ज्ञानवर्ध्दक समझ जरूर मिलती है। मातृत्व औरत और मर्द को या 'स्त्री भाव' और 'पुंस तर्क' को अलगाता नहीं है बल्कि उन्हें अधिक पास खींच लाता है।'

कुछ नारीवादी दार्शनिकों ने 'जिम्मेदारी या देखरेख के ’आचारशास्त्र' 'एथिक्स ऑफ केयर' के निर्माण की बात कही जिसके मूल दृष्टांत के रूप में मातृत्व को प्रतिपादित किया। यह स्त्रीवादियों के बीच विवादित विषय है। कुछ का मत है कि यह धारणा सारतत्ववाद से प्रभावित है जिसमें पहले से ही स्त्री को पुरूषों की अपेक्षा अल्प तार्किक और अधिक भावपूर्ण, आत्मत्यागी माना जाता है। इससे यह बात भी पुष्ट होती है कि महिलाएँ नैतिक और राजनैतिक चुनाव करने में अक्षम होती हैं। अत: औरतों को घर, परिवार, बच्चे व पुरूषों के साथ असमान संबंधों में ही जीना चाहिए। सैंड्रा ली बार्टकी ने 'फेमिनिटी एंड डोमिनेशन' में माना कि 'नि:स्वार्थ देखभाल' ने स्त्री को पुरुष की तुलना में लिंगीय रूप में असमानुपातिक स्थिति में खड़ा कर दिया है। इससे वह अत्यधिक शोषित व शक्तिहीन हुई है। मर्दों का अधिनायकत्व बना रह सका है। उसकी निजी अस्मिता और यथार्थ की चेतना को हानि पहुँची है। वे पुरूषों के नैतिक मूल्यों को ग्रहण कर रहीं हैं जो बहुत खतरनाक है। सुसन मोलर ओकिन भी मातृत्व को ही स्त्री के पुंस प्रभुत्ववाले क्षेत्रों से बहिष्कार का बड़ा कारण मानती हैं। जबकि अरस्तू मातृत्व को स्त्री की सक्रियता एवं तत्वज्ञान का आधार मानते हैं जिसके कारण वह सभी क्षेत्रों का अभिन्न हिस्सा होती है।

प्लेटो ने महिलाओं को बौध्दिक तथा आध्यात्मिक स्तर पर पुरूषों से हीन माना। स्त्री-पुरुष के संबंध को वे केवल विवाह एवं प्रजनन के लिए उपयुक्त मानते हैं। जबकि मित्रता दो पुरूषों के या पुरुष और भगवान के बीच ही हो सकती है। उन्होंने मैत्री के लिए न्याय व समानता के महत्व को स्वीकार करते हुए भी अपवादों से इंकार नहीं किया हैं ''जब दो व्यक्ति गुणी एवं समान हों, उनमें बराबरी हो, तो हम कह सकते हैं कि वे एक दूसरे के मित्र हैं। लेकिन दरिद्र व्यक्ति की धनवान व्यक्ति से भी मित्रता हो सकती है, चाहे वे बिल्कुल विपरीत हों। इन दोनों ही संदर्भों में यदि मित्रता उत्कट हो तो उसे प्रेम कहते है।'' (प्लेटो, लॉज़ 873 अ)

प्रसिध्द नारीवादी लूस इरीगरी स्त्री की माँ के रूप में अतिरिक्त क्षमता को स्वीकार करती हैं। इस तरह देखा जाए तो माँ के तौर पर औरत न केवल आदर्श मित्र होती है वरन् उसका दायरा भी व्यापक होता है। बकौल लूस इरीगरी, हम जब औरतें होती हैं तो हमेशा माँ होती हैं। एक स्त्री की दिक्कत यह नही है कि वह औरत है एवं माँ हैं बल्कि उसकी परेशानी यह है कि उसे बच्चे, महिला तथा पुरुष सभी को देखना पड़ता है।

स्त्री व स्त्री की मित्रता वस्तुत: सहभाव पर आधारित होती है। देखा भी गया है कि स्त्री और पुरूष के बीच की असमानता, मर्द की तुलना में उसकी गौण स्थिति उसके उदार रूप-संरचना, स्वभाव, व्यवहार को विकृत कर देती है। वह सभी भूमिकाओं को निभाते हुए अपने प्रति सबसे ज्यादा गैरजिम्मेदार होती है। अनेक प्रकार की भिन्नताओं तथा बहुलताओं के बावजूद वे पितृसत्ताक समाज में पीड़ित, शोषित की एकजुट सहभावना से जुड़ी होती हैं। परम्परागत महिला पुरुष के सामने न केवल अभिनय करने बल्कि झूठ बोलने, आडंबर करने के लिए बाध्य होती है। यही कारण है कि वह अपने ही समान अन्य औरतों से सहभाव महसूस करती है। सीमोन द बोउवार इसे 'कुछ अंशों में समलिंगी कामुकता' मानती हैं। यहाँ स्त्री अपने संसार की छोटी-छोटी बातों, क्रियाकलापों, चंचलवृत्तियों, इच्छाओं, कई बार दमित कामुक भावों का उन्मुक्त भाव से साझा करती है। यहाँ यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि भावों और वृत्तियों का यह स्वाभाविक प्रवाह पुरूषों के द्वारा स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। किंतु इस सहभाव की भी अपनी दिक्कत है जो आदर्श मित्रता के लिए बाधक है। पहली यह कि स्त्री का व्यक्तित्वहीन होना। व्यक्तित्व के अभाव में वे स्वयं को परे रखकर अपने संबंधों का चुनाव और निर्माण करती हैं। व्यक्तित्व एवं वैयक्तिकता का नकार उनमें आपसी समानता तथा सहभाव के बावजूद षत्रुता का सृजन करता है। जैसा कि सीमोन द बोउवार कहती हैं  'स्त्रियों में मुश्किल से सह-भाव सच्ची मित्रता में बदलता है। वे पुरूषों से अधिक संलग्नता अनुभव करती हैं। वे सामूहिक रूप से पुरूष-जगत का सामना करती हैं। प्रत्येक स्त्री उस विश्व की कीमत अपनी निजी मान्यता के आधार पर ऑंकना चाहती है। स्त्रियों के संबंध उनके व्यक्तित्व पर आधारित नहीं होते। वे साधारणत: एक-सा ही अनुभव करतीं हैं और इसी कारण शत्रुता के भाव का जन्म होता है। स्त्रियाँ एक-दूसरे को सहजता से समझ लेती हैं इसलिए वे आपस में समानता का अनुभव तो करती हैं, पर इसी कारण वे एक-दूसरे के विरुध्द भी हो जाती हैं।'(स्त्री:उपेक्षिता)
 
भारतवर्ष के संदर्भ में देखें तो पाएँगे कि विगत सैकड़ों वर्षों में मित्रता की परिभाषा बदलती रही है एवं स्त्री ने माँ, पत्नी, सहचरी, मित्र, प्रेमिका, बहन, बेटी बनकर उसे निभाया भी है। हमारे यहाँ मित्रता पारस्परिकता एवं पारदर्शी अभिव्यक्ति का माध्यम रही है। ऐसी मैत्री व्यक्तित्व के सर्जनात्मक विकास में सहायक होती है। कालिदास की पत्नी उनकी सच्ची मित्र ही नहीं बल्कि
शिक्षिका भी रही। तुलसीदास की पत्नी उनसे कहीं अधिक शिक्षित तो थीं ही, वे वास्तव अर्थों में उनकी सहचरी भी थीं। शायद यही कारण रहा कि कालिदास ने अपनी कृति में दुष्यंत व शकुंतला को पति-पत्नी बनाने से पहले मित्र के रूप में चित्रित किया। पत्नी तो वह बाद में बनी। उसकी मित्रता दुरावरहित पारदर्शी मित्रता है। इसलिए दुष्यंत से बिछुड़ने के बाद वह अपनी शारीरिक पीड़ा नही छुपाती। अपने आग्रह को व्यक्त करती है। भक्तिकाल में गोपियों में कृष्ण के साथ इसी मैत्री भाव की प्रधानता है। वे सारे बंधनों, वर्जनाओं को तोड़कर कृष्ण से मिलने जाती हैं। उनका निष्छल प्रेम संसार तथा निर्गुणी ईश्वर को नहीं मानता, वो तो कृष्ण में रमता है। भक्ति-आंदोलन की कवयित्रियों में भी गुरू के साथ यह मित्रता-बोध परिलक्षित होता है। गुरू उनका इनसाइडर है। वे जो किसी से नहीं कहती, गुरू से कहती हैं। सारे आडंबर व मिथ्याचार के विरुद्ध पारस्परिकता का बोध विकसित होता है। यह उसी प्रकार की मैत्री है जो पिता-पुत्र में, जब एक ही नाप के जूते होने लगे तो, होती है या तब जब पहली बार मासिक धर्म होने के बाद पुत्री और माँ के बीच होती है।
 
    मित्रता अनमोल है। अत: आवश्यक है कि स्त्री स्त्रीत्व की मान्य पराधीनता से मुक्त हो। उसकी शिक्षा-दीक्षा उसे आत्मनिर्भर, व्यक्तित्व सम्पन्न बनाए ताकि वह निजी अस्मिता एवं स्वतंत्रता के महत्व को समझ सके। परनिर्भर व्यक्तित्वहीन स्त्री एकाकी, ईर्ष्यालु, संकीर्ण और मिथ्याचारी होती है। यही कारण है कि वह सालों साथ रहकर भी परिवार और सदस्यों से मित्रवत नहीं हो पाती। विवाह के पश्चात की स्थितियाँ कहीं ज्यादा भयानक और निर्मम हो जातीं हैं। अपनी माँ, बहनों के बाद पति की माँ, बहन, भाभी का लगातार साथ व साहचर्य भी उसे घनिष्ठ मित्रताबोध से वंचित रखता है। अर्थात् निज की अवहेलना पर बनाए संबंधों का खामियाजा वह उम्र भर भुगतती है। उसे स्वयं से प्यार करना सीखना होगा। खुद से द्वेषरत स्त्री किसी से प्रेम नहीं कर पाती। मित्रता नहीं कर पाती। उदासी, खिन्नता से घिरी वह निरन्तर असुरक्षित महसूस करती है। इसलिए उसे खुद की इयत्ता-चेतना से संपन्न होना होगा ताकि वह अपनी शक्ति, नि:स्वार्थ प्रेम की क्षमता को पहचान सके।  

बुधवार, 16 मार्च 2011

ताहा मुहम्मद अली फिलिस्तीनी साहित्यिक परिदृश्य के जानेमाने कवि, कहानीकार हैं.१९३१ में स्फूरिया के गैलिली ग्राम में जन्मे ताहा ने १९४८ में हुए अरब-इज़राइल युद्ध के दौरान पलायन के दंश को झेला. स्फूरिया में बीता बचपन, उसकी अविस्मरणीय स्मृतियाँ उनके साहित्य की धमनियों में प्रवाहित होती हैं. ताहा के अनुभव कल्पना और कला के रंगों में सनकर मनोरम रूप ग्रहण कर लेते है. स्वशिक्षित ताहा का साहित्यिक जीवन १९८३ में शुरू हुआ.प्रभावी प्रत्यक्ष सम्वाद का साहस, पलायन की पीड़ा, निरस्त कर देनेवाला व्यंग्य, बेहिचक, ईमानदार व कभी-कभी दर्द भरी अभिव्यक्ति ने उनकी रचनाओं को बहुअर्थी बनाया. पेश है ताहा की एक महत्वपूर्ण कविता...(अनुवाद अंग्रेजी से).
                    पेट्रोलियम की नसों में जमा खून 
        मैं बचपन में अतल गड्ढे
        में गिर पड़ा, किन्तु
        मैं नहीं मरा;
        जवानी में पोखर में डूब कर भी
        मैं नहीं मरा;
        और अब ईश्वर हमारी मदद करे-
        मेरी आदतों का एक विद्रोही सैनिक
        सीमा से लगे जमीनी विस्फोटकों की
        पलटन में दौड़ पड़ा है,
        जैसे मेरे गीत,मेरे युवाकाल के दिन
         तितर-बितर हो गये है:
         यहाँ एक फूल है
         वहाँ एक चीख
         और फिर भी
         मैं नहीं मरा!

         उन्होंने मेरी हत्या कर दी
         दावत के लिए काटे गये मेमने की तरह-
         पेट्रोलियम की नसों में ;
         जमा खून.
         ईश्वर का नाम लेकर
         उन्होंने मेरा गला चीर दिया
         एक कान से दूसरे कान तक
         हजारों बार,
         और हर बार
         गिरती रक्त की बूंदें
         पीछे से आगे तक छलछला पडीं
         जैसे फाँसी लगे इन्सान का
         आगे-पीछे झूलता पैर,
         जो तभी स्थिर होता है,
         जब बड़े, रक्तिम औषधि वृक्ष
          पर फूल लग जाते हैं-
          उसी आकाशदीप की भाँति
          जो भटके जलयानों को
          रास्ता दिखाता है और
          राजभवनों तथा दूतावासों की
          स्थिति चिन्हित करता है.

          और कल
          ईश्वर हमारी मदद करे-
          फोन नहीं बजेगा
          फिर चाहे वह वेश्यालय में हो या किले में,
          या एकाकी पड़े बादशाह के पास,
          वह मेरे पूर्ण विनाश का इच्छुक है.
          लेकिन...
          जैसा कि औषधि-वृक्ष ने बताया है,
          और जैसा सरहदें भी जानती हैं,
          मैं नहीं मरूँगा! मैं कभी नहीं मरूँगा!!
          मैं सतत रहूँगा- हथगोलों में छर्रों की तरह
          गर्दन पर टिके चाकू की तरह,
          मैं हमेशा रहूँगा-
          रक्त के एक धब्बे में
          एक बादल के आकार में
          इस संसार की कमीज पर!

        
        
 

मंगलवार, 15 मार्च 2011

अनुवाद के पिछले क्रम को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत है कवयित्री समां साबावी की कविता. इस कविता में समां हिंसक विनाश में आहत मानवता के जड़ 'स्टेटिक मोड' को सरल भाषा में बरतती हैं. बरसों के दमन में न्याय, सच, सपने, अपने, सुरक्षा, भविष्य, शांति धुंधला गयी है. वे जानती हैं कि फिलिस्तीनियों के लिए अस्तित्व समय के इस अनिश्चित प्रवाह में डटे रहने की ज़िद है. गौरतलब है कि फिलिस्तीन और इज़राइल के लम्बे संघर्ष व इज़राइल के अवैध अधिग्रहण ने फिलिस्तीनी जनता को अहर्निश त्रासद स्थितियों में जकड़े रखा है.  
                           गाज़ा, जहाँ समय अब भी खड़ा है 
          हमें मत बताओ कि एक वर्ष बीत गया ...
          हमने जीवन को तारीखें देखकर मापना बंद कर दिया है
          बहुत पहले से हमारे लिए समय स्थिर हो गया है
          हिंसक विनाश और अथाह दुःख ने इस पर विराम लगा दिया है
          और इस बर्बादी के बीच मिलनेवाले कुछ शांत क्षणों में
          हम 'क्रिसमस' नहीं मनाते, न ही झूठी प्रसन्नता के लिए 'ईद'
          ' नए वर्ष की शुभाकांक्षा' देकर हम स्वयं को मूर्ख नहीं बनाते
          कोई भी अवसर कभी भी हमारा नहीं,
          वह तो भविष्य की अनिश्चितताओं से घिरा है
          व्यतीत कल ही, हमारा आज है
          यहाँ समय जड़ है
          और एक ही तारीख़ वर्ष है
          जो हमारा जीवन धारण नहीं करता,
          न हमारे सम्मिलित दुखों को,
          न बचे रहने की कामना को
          हमें मत बताओ कि एक वर्ष बीत गया...
          न्याय के ध्वस्त होते ही हमारी घड़ियाँ बंद हो गयीं थीं.
          दशको के दमन ने ग्रहण का अँधेरा फैला रखा है
          ...अब कोई समय की बात नहीं करता
          समय की अनुपस्थिति में हम ठहर से गये हैं
          हम तुम्हारी तरह जीवन को दिनों से नहीं तौलते
          आलिंगनों की ऊष्मा ही हमारे जीवन की वाजिब गणना है.
          हमारा मूल्य प्रेमी हृदय की मात्र एक स्पंदन,
          हमारा अस्तित्व हमारे होने की ज़िद है.
          इसलिए हमें मत बताओ कि एक वर्ष बीत गया...
   

सोमवार, 14 मार्च 2011

फिलिस्तीनी कवि अब्दुल-अज़ीज़ का जन्म बेत इनान में जेरुसलम के करीब हुआ था. उन्होंने जोर्डन के स्कूलों में शिक्षण का कार्य किया.उनके काव्य संकलन बेबाक, स्पष्ट प्रयोगधर्मिता से भरे पड़े हैं. अज़ीज़ की कविता कवि-मन की अनूठी बेलौस अभिव्यक्ति करती है. स्त्री की उपस्थिति का सहजबोध, उसके व्यक्तित्व की तरंगो में डूबता उतरता कवि बिना किसी अवरोध के उसका होना,सम्पूर्ण होना स्वीकारता है...   पेश है उनकी कविता 'द हॉउस '_
                                 घर 
         संयोग से मैं उससे मिला
         वह एक स्त्री थी जिसके होठों और जूड़े से
         प्रकाश झर रहा था.
         झट उसने मेरी पसलियों से एक फूल तोड़ लिया
         और गिरते झरने के ऊपरी छोर की ओर दौड़ गयी
         जहाँ इसके चमकदार रेशों से उसने अपना घर बनाया.
         जब मैंने उसे चूमा
         वह हिरनी की त्वरित गति से
         ईश्वर के उन्मुक्त देश झिलमिलाने लगी.
         मैंने कहा,"तुम कौन हो, जल-अश्व ?"
         और उसने कहा,"मैं रानी हूँ ".
         मेरे आलिंगनबद्ध करते ही
         उसने उद्दाम लहरों में मुझे समो लिया
         मेरी चेतना के तारे जगमगा उठे.
         मैंने कहा,"तुम कौन हो,मखमली पुष्प?"
         उसने कहा,"मैं बुलबुल का मृदु पंख,
         तुम्हारे चुम्बनों का सार...".
         उसे सुगन्धित आलिंगन में भरकर मैंने
         आत्मिक प्रार्थना पूरी की ,
         उसने विप्लव उत्पन्न कर दिया है मेरे भीतर ,
         प्रत्येक शिरा में और
         कोशिका में
         मेरी मृत देह पर स्पन्दित घर
         के समान वह खड़ी है.

अनुवादक  --विजया सिंह (अंग्रेजी से )

रविवार, 13 मार्च 2011

              अनकहे सत्य का कवि शमशेर
                                                 

कला विषेशकर कविता की कला कलाकार कोकवि को नितांत व्यक्तिगतनिजी मानवीय स्थितियों और संवेगों से परिचित कराती है। फिर भी कविता एकालाप नहीं अत्यंत अंतरंग किन्तु सक्रिय संवाद है। शमशेर का निजी उन्हें एकाकी नहीं बनाता। कविता के निजी पलों में कवि के साथ सम्पूर्ण संसार भी श्वांस लेने लगता है और इसी से हरियाती है शमशेर की कविताई। उनके पास कवि की ऑंखेंशिल्प का विवेकमनुष्य होने की प्रतिबद्धता तथा रचनाकार के स्पष्ट सिद्धांत भी हैं-'एक अच्छे कवि के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपने देश की और भाषा की काव्य परम्परा से अच्छी तरह परिचित हो और इस परम्परा में आनेवाले श्रेष्ठ कवियों का उसने बार-बार और अध्ययन किया हो।'(शमशेर: कुछ और गद्य रचनाएँ)
      आश्चर्य नहीं कि शमशेर के मौलिक कवित्व ने 'अपने स्वंय के शिल्पका निर्माण किया है। उनकी कविताई व्यक्तित्व विकास से जुड़ी हुई है उनकी कविता में भावशिल्प,भाषाबौद्धिकता का अनुपम संयोग हैजीवन के सुलझे-अनसुलझेकहे-अनकहे पहलुओं से कोई परहेज नहीं। वहां सारा का सारा आवश्यक हैचुपचाप ही सहीज़रूरी है। शमशेर के शिल्प की विशेषता को बारीकी से रेखांकित करते हैं मुक्तिबोध ने लिखा -'अपने स्वयं के शिल्प का विकास केवल वही कवि कर सकता हैजिसके पास अपने निज का कोई मौलिक विशेष होजो यह चाहता हो कि उसकी अभिव्यक्ति उसी के मनस्तत्वों के आकार कीउन्हीं मनस्तत्वों के रंग कीउन्हीं के स्पर्श और गंध की हों।'(शमशेर: मेरी दृश्टि में)
       शमशेर ने 'दूसरा सप्तककी कविताएँ, 'उदिता', 'कुछ कविताएँ', 'कुछ और कविताएँ', 'चुका भी नहीं हूँ मैं','इतने पास अपने','काल तुझसे होड़ है मेरीजैसे काव्य-संग्रहों की रचना की। इनके काव्य के प्रथम चरण में एक ओर छायावाद का प्रभाव और दूसरी ओर छायावाद से हटकर नए भावविषयों और शिल्प के निर्माण की कोशिश दिखाई देती है। आगे वामपंथ में पूरी आस्था के साथ उन्होंने सृजनकर्म के प्रति गहरे सरोकारों को व्यक्त किया। इसके बाद के चरण में शमशेर की काव्य कला का सर्वोत्तम रूप दिखता है जहाँ उनकी गहरी दृष्टिसमृद्ध भाव-बोधप्रखर संवेदनशीलताशिल्प एवं भाषा सौंदर्य स्वत: आकर्शित कर लेते है। इसी काल में लिखी कविता 'अमन का रागबकौल मुक्तिबोध 'क्लासिकल ऊँचाईकी कविता है-
    'सब संस्कृतियाँ मेरे सरगम में विभोर हैं
     क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ।
     बहुत आदिमबहुत अभिनव।'
       शमशेर की सबसे बड़ी खूबी उनकी ग्रहण शक्ति है जो सभी प्रभावोंप्रक्रियाओं को हजम कर उसे पुनर्सृजित कर अभिनव रूप में कविता के माध्यम से सामने लाती है। उनकी कविताई में छायावादी काव्य-परम्परा की झलक है तो उर्दू शायरीहिंदीउर्दूअंग्रेजी साहित्य का गंभीर अध्ययनसमकालीन भाषा के साथ ही साथ यूरोपीय परम्परा का ज्ञान भी परिलक्षित होता है। उन्होंने अपने कई पसंदीदा रचनाकारों से भी प्रभाव ग्रहण किया जिनमें कबीरशेक्सपीयरमीरगालिबनज़ीरफ़ानीइकबालनिराला का नाम प्रमुख है। निराला को महत्वपूर्ण मानने के कारणों को रेखांकित करते हुए शमशेर कहते हैं-'एक बड़े कवि में जिस गुण को मैं महत्व देता हूँ वह है एक आंतरिक फोर्सएक तरह का फोर्सऊर्जाजो कि निराला में हैफोर्स। और एक सेल्फ कानफीडेन्स जो उनकी कविता में बोलता है।'
       शमशेर सन् 1945 में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने। उनकी कविताओं में मार्क्सवादी आग्रहों को लेकर कई अटकलें भी लगाई जाती रहीं हैं। जबकि सचाई यह है कि किसी भी वाद से परे शमशेर मानव-जीवन सत्योंसुख-दुखसौंदर्यप्रेम से जुड़े कवि हैं और निरन्तर कष्टसाध्य सर्जन उनका कर्म है। उनकी कविताई 'ह्यूमैनाइजिंग इफेक्ट' (मुक्तिबोध) से भरपूर है। डॉ. विजयदेव नारायण साही भी शमशेर को किसी विचारधारा के प्रचारात्मक प्रभाव से इतर मानते हैं-'आरंभ में जिसे शमशेर मार्क्सवाद कहते थे उसके लिए दस वर्ष बाद कुछ अधिक ढीली शब्दावली 'समाज सत्यया उससे भी अधिक ढीली शब्दावली 'समाज सत्य का मर्म', 'इतिहास की धड़कनआदि का प्रयोग करते है। शायद यह हाशिए की लिखावट को कुछ और सूक्ष्म या धुँधला बनाने की कोशिश है। वस्तुत: शमशेर ने मार्क्सवादी दर्शन को पूर्णत: आत्मसात कर लिया था इसीलिए उनमें अपने को मार्क्सवादी कहलाने का प्रचारात्मक आग्रह नहीं पाया जाता।यही कारण है कि शमशेर की कविता मूल्योंजनपक्षधरता तथा संघर्ष की बातें करती है-
       'एक - जनता का
           दु:ख : एक।
        हवा में उड़ती पताकाएँ
            अनेक।
            दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
            कंगाल बुद्धि : मजूर घर-भर।
            एक जनता का - अमर वर
            एक का स्वर
            -अन्यथा स्वातंत्र्य-इति।       (बात बोलेगी)
         शमशेर कवि होने के साथ- साथ सिद्धहस्त चित्रकार भी हैं। मुक्तिबोध के शब्दों में'शमशेर की मूल मनोवृत्ति एक इम्प्रेषनिस्टिक चित्रकार की है।उनकी कविताई कवित्व और चित्रकारी का सम्मिलित रूप है। कवि की टेकनीक चित्रकार ने न केवल समृद्ध की है बल्कि उसे प्रखरबारीक और सर्वसमावेशी भी बनाया है। शमशेर दुगुनी शक्ति से जीवन के वास्तविक भाव प्रसंगों का काव्यात्मक चित्र प्रस्तुत करते है। भावों को प्रकृति से युक्त कर सचित्र ऐंद्रिक रूप में साकार करना कविता के आस्वाद को बढ़ाता है-   
       'घिर गया है समय का रथ कहीं
       लालिमा में मँढ़ गया है राग।
       भावना की तुंग लहरें
       पंथ अपनाअन्त अपना जान
       रोलती है मुक्ति के उदगार।'   (घिर गया है समय का रथ)
    शमशेर की कविताएँ यथार्थ के धरातल पर मनोभावों के तारों से बुनी गई है जिनकी मनोवैज्ञानिकता उन्हें कहीं अधिक गहनसंश्लिष्ट बना देती है। कई बार दुरूह भी। उनकी कविताएँ सहज कथन मात्र न होकर तीव्र प्रतिक्रियाएँ हैं। जीनेसोचने और लड़ने को मजबूर करती हुई।
     प्रकृति के विविध शेड्सबिम्बचित्र शमशेर के काव्य में प्रमुखता से लक्षित किए जा सकते है। भोरशामपर्वतबारिशबादल कई बार कवि की 'इम्प्रेषनिस्ट कलामें घुलकर महत्वपूर्ण बिंदुओं पर मुखर तो अन्य पर धुंधले आकारों में सामने आते है। कहीं वाचाल प्रकृति है तो कहीं मूक किन्तु सजीव प्रकृति ऑंखों के सामने तैरने लगती है। पाठकों की संवेदनाओं को ललचातीउद्दीप्त करती हुई।
          'जो कि सिकुड़ा हुआ बैठा थावो पत्थर
           सजग-सा होकर पसरने लगा
           आप से आप।'
      छायावादी कवियों से इतर शमशेर प्रेम में शरीर के आकर्षण को नैतिकता के बाड़ों से मुक्त कर सहर्ष स्वीकारते है। यह प्रेम का कुंठित और अमर्यादित रूप नहीं है बल्कि मनुष्य की कामुक वृत्तियों की निर्द्वन्दसुन्दरआवश्यक अभिव्यक्ति है। प्रिय के सौंदर्य और प्रेम में डूबा कवि अपराधबोध और झूठी नैतिकता का बोझ नहीं उठाता। वायवीय फंतासियों से अलग मन और शरीर की इच्छाकामना व तृप्ति की बात करता है। यहाँ गौरतलब है कि शमशेर तथाकथित पुंसवादी मानसिकता से ग्रस्त होकर सतही चित्रण नहीं करते वरन् प्रेम की दृष्टि से सौंदर्य की छवि अंकित करते है। वे कहीं भी निरंकुश नहीं होते वरन् स्वत: निर्मित सेंसर के साथ सक्रिय होते है। कहते हुए भी एक अनकहापनगोपन रखने या मूक हो जाने की प्रवृत्ति वस्तुत: कवि की सचेत दृष्टि है जो भावअनुभूतियों को उनके सम्पूर्ण आरोहों-अवरोहों के साथ स्पेस देती हैजहाँ केवल प्रेम महत्वपूर्ण रह जाता है। इस प्रकार देखा जाए तो नई कविता को छायावादी काव्य परम्परा का नवीन विकास माना जा सकता है-
               'ऐसा लगता है जैसे
              तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो
              मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में
              आनंद का स्थायी ग्रास...हूँ
              मूक।'                           (तुमने मुझे)
       शमशेर की कविता अकेले व्यक्ति की प्रणय कविता है। प्रेम में वे स्वयं को एकाकी बनाते हैस्वाधीन और उन्नत भी। वास्तविकता यही है कि प्रेम दो सामाजिक अस्तित्वों के मिलन का निजी कार्यव्यापार है जिसे करते हुए हम स्वतंत्र ,ताकतवर  और बेहतर होते जाते हैं। यह शमशेर की अपनी ताकत है। संक्षिप्तकभी रहस्यपूर्णकभी आधी-अधूरी पंक्तियों में कवि पूर्ण प्रेम कर रहा होता है। प्रेम को महसूसने और थामने की कोमलता कवि में है। प्रेम के हल्के मीठे दर्द से कवि मन अनजान नहीं। किसी गंभीर वैचारिक तर्कणा व समझ के परे प्रेम अधिक मनुष्य होते जाने की सार्थकता है-
                   'ठंड भी एक मुस्कराहट लिए हुए है
                      जो कि मेरी दोस्त है।
               कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनायी...
                       मैं समझ न सका,रदीफ़-काफ़िये क्या थे,
               इतना खफ़ीफइतना हलकाइतना मीठा
                       उनका दर्द था।'       
                                      (टूटी हुई,बिखरी हुई)
          रघुवीर सहाय के मतानुसार 'शमशेर ने व्यक्ति की अपूर्णता की बेचैनी और पूर्ण होने की बेचैनी को एक ही व्यक्ति में समो दिया है। इससे अधिक गहरीगाढ़ीअंधेर शांति और हो ही नहीं सकती। साधारण लोग इसी को प्रेम की पीड़ा कहते है। परन्तु यह एक नया इंसान पैदा होने की पीड़ा है।' (टूटी हुई,बिखरी हुई: एक प्रतिक्रिया)
          शमशेर के कवित्व का आलम यह है कि गद्य की अन्य विधाओंकहानीडायरी,रेखाचित्र(स्कैच) सभीमें उनकी कविताई की झलक मिलती है। ''मेरी कुछ कवितानुमा कहानियाँ हैं-लेकिन देखने की बात यह है कि अनेक विधाओं में काम करने वाला आदमी मुख्यत: किस विधा में सक्षम है।''(कुछ और गद्य रचनाएँ- शमशेर)। उदाहरणस्वरूप 'एक बिल्कुल पर्सनल एसे', 'सुभद्राकुमारी चौहान: एक अध्ययन', 'एक आधुनिक विदेशी विद्वान का मौलिक काव्य संग्रह', 'कवि कर्म: प्रतिभा और अभिव्यक्तिजैसे निबंधों, 'प्लाट का मोर्चा', 'तिराहा', 'द क्रीसेन्ट लॉजकहानियोंस्कैच 'मालिष: जाड़ों की एक सुबह', 'कुल्हाड़ियाँ', 'रात पानी बड़ा बरसाके साथ डायरी में भी उनकी काव्य कला और चित्रकला को सहज ही देखा जा सकता है। डायरी की प्रस्तुत पंक्तियों में भी यह दृष्टव्य है-'नभ की सीपी जो रात्रि की कालिमा में पड़ी थीधीरे-धीरे उशा की कोमल लहरों में घुलती और पसरती चली गई।'
          कवि की चेतना ऐंद्रिक रूपों गंधरूपस्पर्षरस में नए इमेज का निर्माण करती है। नए रचनात्मक अर्थों के साथ शमशेर की काव्य-भाषा एक खास तरह के अनुशासन में गतिशील होती है। शब्दों के द्वारा कवि भावोंअनुभूतियों को सचेत रूप में क्रियेट करते है। कई बार शब्द कविता से अलग थलग भी दिखाई देते है और कविता की अनेकार्थता में वृद्धि करते है। वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण शमशेर की कविताओं को एक विशेष अर्थ में 'शब्द रचनाएँभी कहते है 'मानो शब्द भाषा के नियमों से बँधे नहीं उसमें खुले से पड़े है।'(शमशेर बहादुर सिंह: इतने पास अपने)
          शमशेर पाठकों और आलोचकों की आलोचना के केन्द्र में भी रहे। उनके काव्य को अस्पष्टदुरूह कहा गया तो कभी अत्यधिक शिल्प भार से बोझिल। कभी-कभी कवि और चित्रकार का क्षेत्र भी आपस में उलझता दिखता है या कविता में बढ़ते मूकभाव से पाठक परेशान होता है। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि शमशेर का काव्य भावोंअनुभूतियों,मनोवेगोंसंबंधों की यथार्थ अभिव्यक्ति करता है। ये सभी मूलरूप में जटिल मानवीय सच्चाईयाँ हैजिनका सरलीकरण पाठको के लिए सुविधापूर्ण भले हो लेकिन काव्याभिव्यक्ति के सौंदर्य को घटाने वाला होगा। जबरन सरलीकरण की प्रक्रिया हानिकारक भी हो सकती है। दूसरी बातशमशेर प्रसंग विशेषपरिस्थिति विशेष के अनुसार विशिष्ट इमेज निर्मित करते है जो सामान्य रूढ़िबद्धमशीनी पाठकों व आलोचकों से थोड़ी उदारता की भी अपेक्षा रखता है। जड़ समझ और यांत्रिक पठन द्वारा चेतन-अवचेतन के बहुरेखीय पाठ को समझना मुश्किल है। शमशेर का काव्य धीरे-धीरे ही सही पाठक की समझसौंदर्यबोध को परम्परागत यांत्रिकता से मुक्त कर सक्रिय बनाता है।
          ऐसा भी होता है कि रचना के दौरान कवि इतना आत्मगत और केंद्रित हो जाता है कि उसके मनस्तत्वों का संप्रेषण समान रूपाकारों में नहीं हो पाता। मुक्तिबोध इसका कारण शमशेर के दोहरे व्यक्तित्व को मानते है-'मेरा ख्याल है कि शमशेर शब्द-संकेत को रंग-संकेत का स्थानापन्न मान बैठते हैं। कवि को चित्रकार का स्थानापन्न बना देने सेऔर उस स्थापन्न कवि के सम्मुख कार्यक्षेत्र विस्तृत कर देने सेशमशेर की रचनात्मक प्रतिभा ने बहुत बार घोटाला कर दिया है...'
          शमशेर के काव्य में संकोच की झलक भी है। कहते-कहते रुक जानाबिखरे-बिखरे शब्द समूहअधूरी पंक्तियाँटूटे इमेज बताते है कि कवि का विश्वास अनवरत कहते जाने में नहीं है। यहाँ कवि में सामान्य स्त्रियों का गुण भी दिखता है जो चुप होकर सबसे ज्यादा मुखर होती हैं। 'उनके लिए कहे के बजाय अनकहे में अधिक कविता है।'(अशोक वाजपेयी) 

शनिवार, 12 मार्च 2011

पुरानी कविता भी कई बार नए सन्दर्भों में प्रासंगिक हो जाती है. डायरी के पन्ने पलटते हुए यकबयक हमारी नज़रों के आगे अतीत,वर्तमान .भविष्य के अनेकानेक चित्र घूमने लगते हैं ...ऐसा ही एक कोलाज मेरी यह कविता पेश करती है, बिना किसी फेरबदल के. केवल शीर्षक को मैंने बदल दिया है. पहले शीर्षक था 'अणिमा : एक अभिनव कोलाज', जिसे परिवर्तित कर 'अणिमा + अभिनव = एक कोलाज' के रूप में प्रस्तुत कर रही हूँ. कारण कि अणिमा कि सार्थकता मैं केवल अभिनव तक नही मानती, वह उसके परे भी बहुत कुछ है. उसका व्यक्तित्व, अस्तित्व, उसकी पहचान केवल एक पुरुष, एक सम्बन्ध नही हो सकता. यह कोलाज मात्र झलक भर है...उसका होना ज्यादा होना है...
          अणिमा + अभिनव = एक कोलाज  
        अणिमा जानती है कि
           नहीं भरते शब्दों अर्थों
           संख्याओं के अंतराल ...
           दरक जाती है अणिमा
           अपने और गांठ में बंधे
           अपनों के वजूद के साथ,
           भूल नहीं पाती कि
           जब सम्बन्ध साँस लेना
           बंद कर देते हैं तो
           वजूद कैसे नीला पड़ जाता है
           और भीतर बहता रक्त
           सफ़ेद.
           *           *         *
          एकदूसरे  के हाथों को थामे
          वह, महसूसती है
          अभिनव के हाथों का
          पथरीला स्पर्श, अनचाहा
          कठोर दबाव
          ...     ...   ...
          पुर्जे-पुर्जे होते
          अणिमा
          अभिनव.
          *           *         *
          छूटती जाती राहें
          बीतते, बिताते क्षण
          बस, नहीं बीतते
          क्योंकि नहीं बीतता
          कभी भी, कुछ भी
          अणिमा ने सुना ,
         'आवश्यकता मात्र
          टटोलने की है'
          तभी,
          यकायक, बीत गया
          अपनी पूरी पूर्णता के
          साथ
          अभिनव.

 

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

आज मेरी नयी कविता अमेरिकी अफ्रीकी कवयित्री लूसिले क्लिफ्टन (1936-2010) को समर्पित है. इनकी दुर्धर्ष स्त्री चेतना ने जीवन, शरीर,मन,इच्छा से संबंधित अनेक विषयों को अपनी कविताओं में समेटा. लूसिले क्लिफ्टन वर्ष १९९४ में  स्तन कैंसर से ग्रसित हुई. कहना न होगा कि स्त्री देह से जुडी इस अभेद्य त्रासदी का अनुभव कितना पीड़ादायक रहा होगा. मेरी कविता की तीसरी  और चौथी पंक्ति उनकी कविता '१९९४' से साभार ली गयी है.

स्त्रीत्व का नैसर्गिक सौंदर्य 

स्त्रीत्व का नैसर्गिक सौंदर्य 
पहली बार जाना,
'कितना खतरनाक होता है
दो स्तनों के साथ इस दुनिया में कदम रखना.'१
पहली बार समझा,
महज़ अंग नहीं सजीव चेतन हैं हमारे...
और पहली बार ही,
दर्द की कँटीली रेखाएँ खड़ी हो गई हैं
शरीर के एकाधिक पोरों में.
'मैं ठीक हूँ' का अपाहिज झूठ आश्वस्त नहीं
करता, न मुझे, न माँ-बाबूजी को.
ठंडे, दगहे शरीर (आत्मा) में सौंदर्य
नहीं, आकंठ भयाकुलता है
किसी के कामुक-स्नेहिल छुअन में
अकेले हो जाने की सिहरन.
भीतर-भीतर ठस्स होते जाते, कठोर
आगत को नकार कर एकबारगी
मैंने कहा,' ठीक हूँ'.

पीले पड़े, बेजान जिस्म, झड़ते केश,
आस्वादहीनता, दवाओं की अंतहीन फेहरिश्त,
बार-बार की लंबी नीम बेहोशी,
निहायत निर्मम हो गयी है.
उकताने लगी हूँ.
अकेले माँ-बाबू , अकेली मैं
बढ़ते जाते अकेलेपन में साथ-साथ हैं
यों कि साथ-साथ अकेले हो गए हैं.

मन की ऊरठ, रूखी हथेलियों ने
छीजती देह को थाम लिया है.
मेरी उन्मुक्त हँसी झूठी नहीं
मेरे-तुम्हारे स्पर्श के बीच अंकुरित
उष्मा भी सच है, अखंड है.
तुम और मैं हमेशा से
अखंड सत्य, अखंड सुंदर.
निरन्तर क्षीण होती मैं
तुममें अक्षुण्ण हूँ.

जोड़ने लगी हूँ अपनाआप
अधूरेपन की सहजता अस्वीकार कर पूर्ण होना चाहती हूँ
सतरंगे इंद्रधनुष को ऑंचल में बाँध
लाँघ जाना चाहती हूँ सारा आकाश
जबकि टूट रहा है देह का तिलिस्म, बेआवाज़,
वाकई मैं जीना चाहती हूँ...

१.लूसिले क्लिफ्टन कि कविता '१९९४' से उद्धृत है .

बुधवार, 9 मार्च 2011

पहली बार अपनी बहुत पुरानी कविता प्रकाशित कर रही हूँ. संकोच के साथ बड़ी दी से मेरी नितान्त गोपनीय किन्तु  सहज समरसता को यह कविता व्यक्त करती है. यहाँ दी हैं .मैं हूँ और बीतता बचपन है. इसके साथ वह हरा , मुलायम-सा समय भी है जब आज की जटिलताओं से अनजाने हम सबसे अलग एकसाथ 'केवल बहनें ' हुआ करते थे. और यह  हमारी प्राथमिकता थी...आज प्राथमिकता बदली नही, विस्तृत हो गयी है ...
                                                             तस्वीरें 
                                              नए फ्रेम में लगी अपनी 
                                             तस्वीरों को कुछ पल एकटक देखते हुए
                                             मैंने हठात दीदी के कोमल गरम हाथों को
                                             पकड़कर अनायास ही कहा ,
                                             "इन तस्वीरों में हम हमेशा रहेंगे 
                                             जिंदा और साथ -साथ ".
                                             ऍन उसी वक्त लगा जैसे हमने पूरी कर दी
                                             हों जीने की सारी जटिल शर्तें ,
                                             साथ -साथ रहने की सभी अनगढ़ मांगें और 
                                             जैसे तय कर लिये हों जीवन के ऊबड़-खाबड़ 
                                             रास्ते झट से.
                                             ऐसी ही अनगिन बातों से अंटे हम बने रहे 
                                             मौन, स्तब्ध 
                                             गुजरते रहे अनकहे, बोझिल क्षण हमारे बीच 
                                             जिन्हें केवल हमने सुना और छोड़ दिया उन्हें 
                                             यों ही अनकहा.
                                             कहते कैसे 
                                             कि हमने गुजार दिए साथ-साथ कई अनमोल वर्ष 
                                             और अब नहीं हमारी गाँठ में इतने वर्ष 
                                             जो बनाये जा सके उतने ही अनमोल .
                                             आर्द्र अनुभूतियों को हवा देते हुए मैंने कहा,
                                             "जल्दी हो जाये तुम्हारा ब्याह मेरे 
                                              पेशेवर बनाने से पहले ..."
                                              बातूनी दीदी कि बड़ी, कोरो तक पनीली झलमल 
                                              करती आँखों ने मानो मेरे ठन्डे व्याकुल स्पर्श को 
                                              सहेजा,"हाँ! रहेंगे हम जिंदा और 
                                               दोहरे साथ-साथ".