'जागो फिर एक बार' में प्रकृति रुपी स्त्री पुरुष को जगा रही है, तो 'पंचवटी प्रसंग' में शूर्पनखा अपने प्रिय पुरुष में प्रणय-लालसा जगाना चाहती है.निराला के काव्य में पुरुष के आह्वान के पहले स्त्री का प्रणययुक्त स्वर सुनाई देता है. 'ऐसी ही लालसा-विह्वल गीतिका की वह युवती है जो अपने मर्म पर मनोज्ञ भ्रमर के उतरने का आह्वान करती है. (पृ .40) आह्वान कहीं मूक है,कहीं मुखर; पुरुष को वह किसी न किसी रूप में सुनाई अवश्य देता है. 'तुम और मैं' की उपमान-श्रृंखलाओं में 'तुम' नहीं, 'मैं' के स्वर की झंकार है और यह 'मैं' पुरुष नहीं, नारी है.'6 वह चुनाव करना जानती है-'खेलूंगी कभी न होली, उससे जो नहीं हमजोली.'(राग-विराग,पृ. 158). वह सजग और सचेत भी है. पुरुष जब मोह में सुध-बुध खो देता है, वह बार-बार उसे संभालती है. नहीं यही नही, वह प्रेम की खातिर जाति, धर्म और समाज से टकराती है. उसके मनोबल के सामने कोई बाधा नहीं टिकती. निराला के साहित्य में नारी प्रेम के निजी अधिकार, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करती है, प्रेमी को उत्साहित करती है. उसे अपने स्नेह की शक्ति प्रदान करती है.
ऐसी सबला नारी से आँखें मिलाना पुरुष के लिए सहज व्यापार नहीं है. 1936 में ''जब उन्होंने 'गीतिका' का समर्पण लिखा, तब तक मनोहरा देवी पूरी तरह रत्नावली बन चुकी थीं. उन्हें अपनी हिंदी काव्य-साधना की मूल प्रेरणा मानकर निराला ने लिखा-' जिसकी हिंदी के प्रकाश से, प्रथम परिचय के समय, मैं आँखें नही मिला सका- लजाकर हिंदी की शिक्षा के संकल्प से, कुछ कल बाद देश से विदेश, पिता के पास चला गया था और उस हीन हिंदी प्रान्त में, बिना शिक्षक के, 'सरस्वती' की प्रतियाँ लेकर, पद-साधना की और हिंदी सीखी थी '... .''7 डॉ रामविलास शर्मा का मानना है कि पुरुष के आँख न मिला पाने का कारण हिंदी का प्रकाश ही नहीं है बल्कि उन आँखों का अद्मय, अपराजेय भाव भी है,
इन आँखों में हिंदी का उजास ही नहीं ललकार भी है. देखने वाला सिहर उठता है,सहम जाता है. शायद इसीलिए निराला नारी के सौन्दर्य में नेत्रों के महत्व को स्वीकारते है. काम-प्रेम में प्रेरणा शक्ति स्त्री है, तो उसकी भूमिका को अपराजेय बनाने वाले उसके नेत्र हैं. यही वज़ह है कि निराला का पुरुष मन स्त्री की महत्ता स्वीकार करते हुए भी उसके नेत्रों का सामना नही करना चाहता. उनका मन अंधकार में रमता है. रात्रि का विविध रुपी मनोहारी चित्रण करने हुए कवि अपराजित आँखों का सामना करने से बच निकलते है.
निराला ने स्त्री-पुरुष के प्रेम, काम, संयोग-वियोग के अनेक भावपूर्ण चित्र खींचे हैं, जहाँ प्रकृति की भूमिका महत्वपूर्ण है. प्रकृति काम-चेतना के उतार-चढ़ाव को नियमित करती दिखती है. ऋतु चित्रण में निराला की दृष्टि में पुंस चेतना का प्राबल्य है. विशेषकर वर्षा ऋतु को उन्होंने नारी-वियोग से जोड़कर देखा है. रामविलास जी का मानना है कि यह निराला की पुरुष दृष्टि है जो नारी को अपनी प्रतीक्षा में व्याकुल देखना चाहती है. पुरुष वाली भाव-दृष्टि में वर्षा आनंद की ऋतु है, यदि नारी दुखी है तो पुरुष उसके दुःख को दूर करने का अभिलाषी है.
निराला काम-प्रेम, श्रृंगार-साधना को ज्ञान और वैराग्य के समकक्ष मानते हैं.प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितियों में पुरुष और स्त्री के प्रेम का अंकुर उन्हें विजयी बनता है. उनके चरित्र विशेषकर स्त्रियाँ प्रेममार्गी हैं. वे प्रेम में प्रवृत्त होने को तत्पर हैं. उनके लिए कामुकता उपभोग और विकृति की बजाय आनंद,पारस्परिकता और पूर्णता है. यहाँ प्रेम में समानता के साथ विश्वास भी है. संदेह के लिए कोई जगह नहीं. 'कुल्लीभाट' में इसकी झलक भी मिलती है 'कुल्ली के इक्के पर बैठकर शेरअंदाज़पुर पहुँचने के बाद पहले सास ने उन्हें शंका की दृष्टि से देखा. फिर निराला को भीतर से पत्नी के हंसने की आवाज़ सुनाई दी. उस हंसी का उन्होंने अर्थ किया,''तुम मेरे हो, तुम पर मेरा पूरा विश्वास है, तुम्हे पाकर मैं और कुछ नहीं चाहती, दूसरे तुम्हें नहीं समझते तो न समझें, मैं किसी को समझाना नहीं चाहती.'' '8 निराला के साहित्य में काम-प्रेम आनंद व संतुष्टि से आगे सृजन-प्रेम है. जिसमें अनावश्यक नैतिक छद्म नही. प्रणय में समता है, उलीचकर दे देने और पाने का उल्लास है.
निराला की कविता 'जुही की कली' स्त्री और पुरुष के बीच की कामुक-भिन्नता को बड़े सुंदर ढंग से रूपायित करती है. एक ओर पुरुष है जो अपने कर्मों और उपलब्धियों को लैंगिक द्वैतता से परे वस्तुनिष्ठ धरातल पर ले जाता है. उसके लिए कामुकता मात्र सम्बन्ध में होती है. वह सम्बन्ध जो स्त्री के साथ स्थापित होता है. लेकिन स्त्री की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है क्योंकि कामुकता उसके लिए सम्पूर्ण और स्वायत्त अस्तित्व रखती है. जो उसके स्त्रीत्व की पहचान से अभिन्न रूप में जुडी होती है. सौभाग्यवती निंद्रालु जुही की कली से मिलने दूर देश से दौड़ा आता मलयानील, उसे चुम्बित कर जगाना चाहता है. वह नहीं उठती. वह निष्ठुर होकर झोंकों की झड़ियों से उसे झकझोर देता है. वह चकित हो जाती है.यहाँ प्रेमी मलयानील दूर से आया है,उसका धैर्य रीत रहा है,इसलिए वह जुही की कली की सुप्तावस्था से चिढ़ कर आक्रामक भी हो जाता है. परन्तु जुही की कली को कोई शीघ्रता नहीं. वह उत्तेजना में प्रेम निवेदन, प्रेम की अठखेलियों को नहीं छोड़ना चाहती. पहले वह निष्क्रिय होने का अभिनय करती है. इस सन्दर्भ में यह समझना जरूरी है कि स्त्री की ऊर्जा कभी निष्क्रिय नहीं होती. वह तो निष्क्रिय और सक्रिय का अद्भुत सम्मिश्रण होती है. स्त्री की कामना शक्ति को पुरुष की तरह केवल ऊर्जा,आक्रामकता व निर्दयता के सन्दर्भ में परिभाषित नही किया जा सकता है. इसके लिए गहरी अंतर्दृष्टि से लैस होना होगा. उसकी सेक्सुअलिटी में लेने, हासिल करने, खो देने, कुछ बनाने, समर्पित होने, आनंद लेने के अलग-अलग तरीके हैं. वह सर्वप्रथम प्रिय की उपस्थिति की अनुभूति चाहती है, उसका लाड़-दुलार और स्पर्श चाहती है तभी अपनी आँखें खोलती है. प्रिया की संतुष्ट, तृप्त छवि पर कवि-मन मुग्ध है. उनमें सुख और सौन्दर्य की अगाध चाह है.
निराला 'बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु !' कविता में पित्रिसत्ताक व्यवस्था में स्त्री को मूक-बधिर बना दिए जाने के षड्यंत्र को बेनकाब करते है. जहाँ पुरुष स्व-प्रस्तुति के आनंद में फूला नहीं समाता वहीं स्त्री को या तो बोलने नही दिया जाता या वह बोलती है तो उसे सुना नही जाता. इन दोनों ही प्रक्रियाओं में स्त्री को हाशिये पर धकेल दिया जाता है. प्रेम व काम-चेतना उसे मनोग्रस्तता के समस्त दुश्चक्रों से मुक्त करती है. अब वह बोलती नहीं, परन्तु वह शक्तिहीन भी नहीं. उसकी उपेक्षित हंसी में सारे जवाब हैं, सारे विरोध दर्ज हैं, वह कतई असक्षम नहीं-
'वह हंसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दांव बंधु !' (राग-विराग, पृ.162)
प्रेम का केवल शरीर तक सीमित होना विकृत होना है. प्रेम की सामाजिक पहचान ही सामाजिक गतिशीलता का आधार तैयार करती है. इससे ही स्त्री के अस्तित्व का बोध होता है. प्रेम, देह, काम, सामाजिक पहचान के जरिये स्वाधीनता और आत्मनिर्भरता को दिखाते है. यहाँ प्रेम, देह-सुख के प्रति स्त्री का रवैया व पहचान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. प्रेम केवल शारीरिक-कामुक संतुष्टि नहीं है. प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए उसमें सामाजिक क्षमता, उत्पादकता की वृद्धि तथा निर्णय लेने का विवेक होना चाहिए. स्त्री की नयी, स्वतंत्र, सामाजिक उत्पादक की भूमिका प्रेम में उसका सामाजिक निवेश बढाती है.इससे प्रेम बना ही नहीं रहता विकसित भी होता. डॉ रामविलास शर्मा 'निराला की साहित्य-साधना' (भाग-2) के निबंध 'नारी की स्वाधीनता में निराला को बदल रही, दखल दे रही स्त्री के पक्ष में खड़ा पाते है. सुमित्राकुमारी सिन्हा की पुस्तक 'अचल सुहाग' की समीक्षा करते हुए निराला ने स्त्री के निजी विचारों को, प्रेम के सम्बन्ध में परिवर्तित धारणा को महत्वपूर्ण माना 'उन्होंने पुस्तक की आलोचना करते हुए लिखा,''एक प्रतिष्ठित परिवार की महिला की कलम से ये जो मनोभाव इन कहानियों में निकले और परिपुष्ट हुए हैं, एकाएक एक पुराने पाठक को ताज्जुब में डाल देते हैं. प्रेम के सम्बन्ध में बदलती हुई धारणा में महिलाओं की प्रतिनिधि की हैसियत से,कवयित्री सुमित्राकुमारी ने बड़ी निर्भीकता दिखलाई है. स्त्री के सम्बन्ध में पुरुष के विचार शुद्ध हों-अशुद्ध, प्राचीन हों-नवीन, स्त्री के विचारों के सामने मान्य नहीं हो सकते. ...'' '9
मनुष्य के रूप में हमें व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और मानसिक अनेकानेक प्रभावों व दुष्प्रभावों को झेलना पड़ता है. रचनाकार का द्वंद्व इससे भी व्यापक है. निराला के मन को भी बहुत सी ग्रंथियां, तनाव, अंतर्विरोध, निषेध-भावनाएं, दमित-इच्छाएं, दुःख, क्रोध,प्रतिशोध जैसी भावनाएं व्याकुल किया करती थीं. दरिद्रता, बेरोजगारी,आर्थिक असुरक्षा, परिवार का बोझ,पत्नी की मृत्यु, बच्चों का ननिहाल में रहना, साहित्यिक अराजक माहौल, अहम् भाव ...सभी ने मिलकर निराला में गहन असंतोष का सृजन किया. निराला का मन अपने पुरुषत्व का प्रमाण देने के लिए व्याकुल रहता था. किन्तु अभाव उन्हें जीने नहीं देते थे. सम्पति का अभाव, विद्या की कमी, प्रतिष्ठित परिवार में जन्म न ले पाने का दुःख,ख्याति की इच्छा, सन्यासी बन जाने की वांछा ने उन्हें हमेशा अस्थिर बनाये रखा. सबसे पहले वे अपनी हीन भावना का बदला पत्नी मनोहरा देवी से लेते हैं. घर में मांस पकाकर, खाकर उन्हें मायके जाने पर विवश कर देते हैं और उनके चले जाने के बाद पश्चाताप से भर उठाते हैं. एस.एन. रामपाल ने अपनी पुस्तक 'इंडियन वीमेन एंड सेक्स' के अध्याय 'इंडियन मेल्स एटित्युड टुवर्ड्स लव एंड सेक्स' में पुरुष की काम-वृत्ति पर विविध प्रकार के दबावों के प्रभाव का ज़िक्र किया है,''पुंस-केन्द्रित समाज में पुरुष स्वयं काम के प्रति कुछ विशेष दोहरेपन (उदासीनता/ महत्वहीनता) से घिरा होता है, क्योंकि उस पर परिवेश की कई गंभीर समस्याओं का दबाव रहता है. ऐसे में काम के प्रति उसका शारीरिक रवैया सामान्य नहीं रह जाता. सामान्य जैविक क्रियाकलाप से इतर काम-सम्बन्ध उसके लिए, एक ओर संसारिकता से पलायन तो दूसरी ओर, असहायता से बचने का माध्यम बन जाता है. जैसे कि मदिरापान करना, ध्यान लगाना, कला और सौन्दर्यशास्त्र जैसी गतिविधियों में पलायन करना.''10
विभिन्न समस्याओं, तनाव और महत्वाकांछा के कारण निराला के जीवन की कठिनाइयाँ बढ़तीं गयीं. उनका मन उतना ही अधीर और विक्षुब्ध होता रहा. वे हमेशा परिवार, सामाजिक स्थिति, असहिष्णु हिंदी संसार को भी दोष देते रहें. प्रतिरोध में वे स्वयं को छिपाते, वेश बदलते, बड़े-बड़े केश रखते. लेकिन मुक्ति कहीं नहीं थीं. कई बार वे निरर्थकता बोध से घिर जाते-'धन्ये मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका !'
('सरोज-स्मृति', राग-विराग,पृ.80)
जन्म से लड़की को जो पुरुष-छवि सबसे पहले प्रभावित करती है, वह है पितृ छवि. पिता के प्रति पुत्री में आकर्षण वस्तुतः उनके स्नेह, देख-रेख, हिफाज़त और जिम्मेदारी के प्रति आकर्षण है. निराला पिता के कर्तव्य निर्वाह में भी स्वयं को अक्षम पाते हैं. अल्पवय में पत्नी की मृत्यु, एकाकी जीवन, बच्चों की ननिहाल में परवरिश जैसी आपदाओं ने उन्हें असंतुष्ट बनाये रखा-' मैं उपार्जन को अक्षम, कर नहीं सका पोषण उत्तम..' ('सरोज-स्मृति', राग-विराग,पृ.82). पिता का साथ, साहचर्य व घनिष्ठता पुत्री में अंतर्विरोध का सृजन करती है, किन्तु निराला के यहाँ मामला दूसरा है-'माँ की कुल शिक्षा मैंने दी, पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची' ('सरोज-स्मृति', राग-विराग,पृ.91). अंत में यही कहना उचित होगा कि महाप्राण निराला जीवन और साहित्य में अपनी लडाई जारी रखते हैं. व्यक्तित्व और जीवन का द्वंद्व उन्हें नए रूप में रचता हैं. संतुष्टि और तृष्णा के बीच ही वे गतिशील होते हैं.
1. जौन,मैरी ई . और जानकी नायर, 2008, परिचय(हमारी सेक्सुअलिटी: मौन या मुखर?), (सं.)मैरी ई जौन और जानकी नायर, कामसूत्र से 'कामसूत्र' तक: आधुनिक भारत में सेक्सुअलिटी के सरोकार,वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली,प्र.सं.,पृ .पृ. 9-33, पृ. 25.
2. शर्मा,रामविलास,1972,निराला की साहित्य साधना(भाग-2), राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नयी दिल्ली,प्र.सं.,पृ.200.
3. शर्मा,रामविलास,1990,निराला की साहित्य-साधना(भाग-1),राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नयी दिल्ली,तीसरा सं.,पृ.427.
4. गीता,व़ी.,2002,जेंडर एंड हिस्ट्री,जेंडर,( श्रृंखला सं.) मैत्रेयी कृष्णाराज, थ्योरायजिंग फेमिनिज्म, स्त्री,कलकत्ता,प्र.सं.,पृ.पृ. 51-103, पृ.94-95.
5. शर्मा,रामविलास,1990,निराला की साहित्य-साधना(भाग-1),राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नयी दिल्ली,तीसरा सं.,पृ.424.
6. शर्मा,रामविलास,1972,निराला की साहित्य साधना(भाग-2), राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नयी दिल्ली,प्र.सं.,पृ.202.
7. शर्मा,रामविलास,1990,निराला की साहित्य-साधना(भाग-1),राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नयी दिल्ली,तीसरा सं.,पृ.438.
8. शर्मा,रामविलास,1990,निराला की साहित्य-साधना(भाग-1),राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नयी दिल्ली,तीसरा सं.,पृ.427-428.
9. शर्मा,रामविलास,1972,निराला की साहित्य साधना(भाग-2), राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.,नयी दिल्ली,प्र.सं.,पृ.38-39.
10. रामपाल,एस.एन.,1978,इंडियन वीमेन एंड सेक्स,प्रिन्तोक्स, न्यू डेली, फर्स्ट एडिशन,पृ .49.
('समसामयिक सृजन', जुलाई-सितम्बर 2012 में प्रकाशित)