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मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

कामदी (कॉमेडी): विसंगति के साथ औरतों की संगति

कॉमेडी या कामदी वस्तुतः विसंगति और बेतुकेपन का आनंद है. यह एक विधा, पद्धति या शैली है  जो वैविध्यपूर्ण परिवेश के क्रमवार प्रभाव में जन्म लेती है. अपने पूरे कलेवर में यह बहुआयामी और अनेक रेखीय है. एक ओर इसकी निश्चित साहित्यिक परम्परा है तो दूसरी ओर यह अन्य कला रूपों और विधाओं में व्यक्त करने की शैली के रूप में भी प्रयुक्त होती है. इसका मूल आधार हास्य है. हास्य के कारण ही यह विभिन्न भेदों, वर्गों, कोटियों जैसी असमानताओं को ध्वस्त कर देती है.
कामदी की आनंदधर्मी संरचना, तीव्र, मुक्त और स्वच्छंद अभिनय काम-प्रेम और कामुकता जैसे विषय को खुल कर पेश करती है. कामदीकार सामाजिक दबाव और भय से मुक्त होकर इच्छा, जरूरत, कामुक आनंद, उत्तेजना और कई बार फूहड़पन को परिहास का आनंद पैदा करने के लिए इस्तेमाल करता है. अभिनेता मज़ाक-मज़ाक में आंतरिक इच्छाओं, शारीरिक जरूरतों, असंतुष्ट कामनाओं को बिना किसी हिचक के इस तरह से प्रस्तुत करता है कि वे हास्य उत्पन्न करने लगते हैं. इससे निषेधों को दरकिनार करने का गुफ्त आनंद भी मिलता है. इस आनंद का एक कारण कामदी के पात्रों और स्वयं में समानता का बोध होना  है. प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विसंगति या कमी या अतिरेक का शिकार होता है. जब वह अपनी ही किसी विकृति या व्यवहार को अभिनीत होते देखता है तो उसे आनंद का अनुभव होता है. कई बार उसे इस बात की भी खुशी होती है कि वह कामदी में उपस्थित चरित्र के समान मूर्ख नहीं है.  
प्लेटो ने कामदी के लिए द्वेष या ईर्ष्या युक्त हर्ष को मूल तत्व माना है. ऐसा आनंद मनुष्य के अज्ञान से पैदा होता है. इस ज्ञानहीन, झूठे अभिमान में किसी का अहित या व्यक्तिगत आक्षेप न होकर हास्य पैदा करने का गुण होना चाहिए. कामदी मुख्य रूप में विरोध पर आधारित होती है. उदाहरणस्वरूप- व्यक्ति की कथनी और करनी का विरोध हास्य का कारण होता है. जबकि अरस्तू कामदी का मूल तत्व हास को मानते हैं आनंद को नहीं. इसमें मनुष्य की मूर्खताओं, दोषों और दुर्बलताओं का ऐसा चित्रण होता है कि इनकी कुरूपता नष्ट हो जाती है. इनसे घृणा का सृजन न होकर हास्य की उत्पत्ति होती है.
अरस्तू के बाद अज्ञात रचनाकार की ग्रीक रचना ‘Tractatus Coislinianus’ ने कामदी सिद्धांत को बेहतर ढंग से पेश किया. इसमें कहा गया कि कामदी केवल निंदा, आलोचना करने या मखौल बनाने की बजाय उपस्थित वास्तविकताओं की आलोचना के साथ उदात्त मूल्यों की स्थापना करती है. इसकी रचना में सभी परम्परागत रूढ़ विधाओं और मान्यताओं का उल्लघंन संभव है.सिसरो का मानना था कि कामदी का जन्म अनपेक्षित से होता है जबकि बर्गसां का कहना था कि कामदी का अस्तित्व मनुष्य के साथ ही है, उसके परे नहीं.
मनोविश्लेषक सिग्मंड फ्रायड परिहास को त्रुटिपूर्ण क्रिया या भाषाई फिसलन मानते हैं जिसके कारण अवचेतन की दमित भावनाएँ और विचार सामने आ जाते हैं. हमारे सपनों की तरह परिहास, हँसी-ठट्टे में भी अवचेतन के विचारों और निषेधों से जुड़ी गंभीर व जरूरी जानकारी मौजूद होती है. मज़ाक करते समय चेतन एवं अवचेतन के बीच के अवरोध बहुधा समाप्त हो जाते है. हास्य में कहीं से भी उछल कर सामने आ जाने की क्षमता होती है.1  मैरी डगलस के अनुसार हँसी या ठट्टा यों ही कहीं से टपक नहीं पड़ते वरन् मौजूद यथार्थ चेतना से उत्पन्न होते हैं. ये अपने अनुसार वास्तविकता को तोड़ने-मोड़ने का प्रयास भी करते हैं, "ऐसे परिहास देखे और स्वीकृत किए जाते हैं जो सामाजिक परिपाटी पर तात्कालिक ढंग से संकेतात्मक या प्रतीकात्मक नमूने प्रस्तुत करते हैं... मज़ाक में उन सभी सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है जिनमें वे उत्पन्न होते हैं. इसका आनंद लेने की एक सामाजिक शर्त है कि जिस सामाजिक समूह द्वारा यह ग्रहण किया जाता है उसमें भी व्यक्त किए गए को विकसित करने की औपचारिक विशेषता होनी चहिए. इस संबंध में एक प्रबल पक्ष को दूसरा चुनौती देता है. यदि किसी सामाजिक संरचना में परिहास है ही नहीं तो आगे भी उसकी अनुपस्थिति बनी रहेगी."2
अतः कॉमेडियन हास के द्वारा समाजिक नैतिकताओं का बहिष्कार करते हुए भी विश्वास जनित सुरक्षा महसूस करता है कारण कि उसकी अभिनय-शैली सामाजिकों में गहन अंतर्दृष्टि पैदा करती है. इस प्रकार वह व्यवस्था में मान्य और प्राप्त विकल्पों से बाहर अन्य विकल्पों का संधान करता है. ये विकल्प न तो परम, निरपेक्ष हैं और न ही शून्य हैं. ये केवल चुनाव हैं.
कामदी अंतर्विरोधी प्रभावों से युक्त दिखाई देती है. यह किसी भी प्रकार की सीमा और बंधन की विरोधी जान पड़ती हैं तो वहीं कई बार कामुक व्यवहारों के रूढ़ीवादी तौर-तरीकों को स्थापित करती नज़र आती है. बहुधा अभिनेता सामाजिक रूप से अस्वीकृत व्यवहारों और संबंधों का मज़ाक बनाते हुए परम्परागत जकड़बंदियों में ही उछलता-कूदता रह जाता है. नई दृष्टि, विकल्पों का प्रतिकार करता है. इसी प्रकार कामदी में देह, इच्छा, जेंडर, विवाह को लेकर सांस्कृतिक पिछड़ेपन के संकेत मिलते हैं. इसने औरतों के प्रति हीन, वस्तुवादी, पितृसत्ताक रवैये को भी जन्म दिया है. कामदी हास्य के आवरण में साधारणतः सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक यथार्थ, मानवीय विसंगतियों, आत्मिक पहचान के मुद्दों, मानसिक और व्यवहारिक उलझनों पर गंभीर वैकल्पिक नजरिया प्रस्तुत करती है. मुश्किल तब होती है जब उसका इस्तेमाल शत्रुता और बदले की भावना से किया जाता है या दूसरों को, उनकी पहचान का या अस्तित्व का मखौल बनाकर, नकारने की कोशिश की जाती है या तय की गई रूढ़ियों को अन्यों पर थोपने का प्रयास किया जाता है. अतः कामदी लैंगिक राजनीति को विभिन्न अंतर्विरोधी रूपों में प्रस्तुत करती है. वह निषेधों से मुक्ति, जरूरतों और इच्छाओँ को ऊँचे स्वरों में व्यक्त करने के साथ जेंडर की निर्धारित सामाजिक-संस्कृति को सुदृढ़ करती रही है.
कामदी में कामदीकार प्रत्येक वस्तु को अनुपातहीन चित्रित करता है. अजीब चेहरा, तेजी से बदलते भाव, बड़ा पेट, बेतरतीब कपड़े, ऊलजलूल व्यवहार, असाधारण मूर्खता, अतिशयोक्तिपूर्ण बातें, ऊटपटांग अभिनय इत्यादि द्वारा हास्य उत्पन्न किया जाता है. शरीर यहाँ एक माध्यम या टूल है जो अधिकाधिक दैहिक, विकृत, अनुपातहीन, अनुशासनहीन, असंतुलित, असंतुष्ठ, हठी और अनैतिक होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है. यानी कामदी का अर्थ शारीरिक गठन और आकर्षण की आदर्श अवधारणा से परे जाना है. ताकी हास्य बना रहे. इसमें पूर्ण सौंदर्य जैसी कोई चीज नहीं होती. यहाँ अपूर्णता तथा बेतुकेपन का जादू चलता है. सौंदर्य व शिष्टाचार की सीखाई गई अनुशासित परिपाटी के विलोम में कामदीकार हास्य का सृजन करता है. मसलन, इस समय के सबसे प्रसिद्ध कॉमेडी शो 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' की बात करें तो बिट्टू शर्मा (कपिल शर्मा), मिसेज शर्मा (सुमोना चक्रवर्ती), दादी (अली असगर), बुआ (उपासना सिंह), गुत्थी (सुनील ग्रोवर), पलक (कीकू शारदा), दुलारी (गौरव गेरा) आदि पात्रों का एकदूसरे की टाँग खींचते हुए लाउड अभिनय करना, बेढब हरकतों को और चेहरे के अनपेक्षित भावों को दिखाना, गुत्थी-पलक का और अब दुलारी-पलक का बार-बार विशेष किंतु निश्चित अंदाज में नाचना (गाना चाहे जो हो), दादी/डॉली शर्मा का शराब के नशे में धुत्त होकर ही मंच पर आना, बेहद कामुक हरकत करते हुए आए हुए मेहमानों को (शगुन की) चुम्मियाँ देना, गुत्थी-पलक, गुत्थी-दादी या दादी-पलक की आपसी मारपीट, उठापटक के दृश्य निश्चित रूप से सुंदरता और सभ्यता के दायरे से परे जाकर हास्य को पैदा करते हैं. यहाँ देह ही प्रधान है जिसकी विलक्षणता की, नियमहीन उत्सवधर्मिता की कोई सीमा नहीं है. अभिनेता शरीर की समस्त सीमाओं को लांघ कर संसार से संवाद स्थापित करता है.
स्त्रियों के संदर्भ में कामदी या तो उनकी लैंगिक पहचान से तय होती है या विवाह को लेकर उनकी उपलब्धता या उम्र से निर्धारित होती है. इस प्रकार कामदी में औरतों का ज्यादातर एकांगी व नकारात्मक प्रस्तुतीकरण होता है. जैसे बिट्टू शर्मा का बार-बार पत्नी को शादी के लिए अयोग्य साबित करना, उसके कद, चेहरे एवं होठों पर भद्दे कमेंट करते हुए उसके खानदान को हीन बताना या बुआ/पिंकी शर्मा का स्वयं को बाईस वर्षीय (जो वह कतई नहीं हैं) बताकर एकाधिक बार शादी की पेशकश करते हुए हास्य का पात्र बनाना उल्लेखनीय है. यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि महिलाएँ कामदी में निर्मात्री की तरह न आकर मातहत की तरह सामने आती हैं. आश्चर्य नहीं कि बेहतरीन अदाकारा टुनटुन (उमा देवी खत्री), मनोरमा, प्रीति गांगुली इत्यादि को न तो कभी किशोर कुमार की तरह मुख्य भूमिकाएँ मिली न ही महमूद की तरह कभी इनकी आमदनी उस दौर के नायक या नायिकाओं से ज्यादा रही. कामदी में विकल्पों के चुनाव और निर्माण की छूट के बावजूद सामाजिक-सांस्कृतिक स्टीरियोटाइप को लागू करना अन्ततः लिंग और वर्ग भेदी जड़ असमानताओं को समर्थन देना है. इसी कारण से कामदी में हमेशा से औरत की पहचान, इच्छा, आकांक्षा और अभिव्यक्ति की विविधता की कमी रही है.
स्त्रियों में सामान्यतः मौजूद तीखी समझ और धारदार अभिव्यक्ति (विट्) की क्षमता होती है. इसे सदैव दबाने या हतोत्साहित करने के प्रयास किए जाते रहे हैं. इसका सार्वजनिक प्रदर्शन औरतों की हीनता का प्रतीक माना जाता रहा है. कामदी में विटी औरतों को पर जबर्दस्त पलटवार किए जाते हैं. यथा- 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' की मिसेज शर्मा जब भी पति को माकूल जवाब देती है वह तत्क्षण उसे हीन बनाना शुरू कर देता है. बिट्टू शर्मा- "अच्छा पहले प्लास्टिक मुँह से निकाल कर बोल''. "देख तेरे ऊपर के होंठ नीचे के होंठ को कुचल ना दे". "बीवियाँ तो कमला, विमला टाइप की ही होती हैं". "अपने मुँह से पूरे घर की वैक्यूम क्लीनिंग कर लेती है". ऐसे व्यवहार की पहली और तुरंता प्रतिक्रिया यह होती है कि औरतें चुप हो जाती हैं. शून्य से घिर जाती हैं. बोलने के लिए कुछ रह नहीं जाता. अंत में जीत बड़बोले पुरुष की होती है.
छद्मवेश धारण कर अभिनय करने का चलन काफी पुराना है. जब औरतों को सार्वजनिक दायरे में आकर अभिनय करने की आजादी नहीं थी, उस समय पुरुष या अपेक्षाकृत छोटी कद-काठी के पुरुषों के द्वारा स्त्री चरित्र निभाए जाते थे. आज भी कामदी इस छद्मवेशी नाटकीयता से जुड़ी हुई है. यहाँ पुरुष स्त्री के और स्त्री पुरुष के वेश में नज़र आती है. 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' में दादी (अली असगर), गुत्थी (सुनील ग्रोवर), पलक (कीकू शारदा), दुलारी (गौरव गेरा) आदि पात्र स्त्री छद्म में दिखाई देते हैं.
बनावटी वेशभूषा में तीव्र कामुक व्यवहार, उत्तेजना के अभिनय द्वारा सर्वग्राही रवैया व्यक्त किया जाता है. दृश्य छद्म के कारण कामदी में केवल औरतों के काम्य होने से अलग मर्दों के प्रति कामुकतापूर्ण, वस्तुवादी रवैया व्यक्त होता है. उदाहरणतः दादी (अली असगर) का सबको चुम्बन देना, पुरुष मेहमानों के प्रति तीव्र आकर्षण व्यक्त करना, गुत्थी (सुनील ग्रोवर) का बाकायदा दुल्हन के वेश में रनबीर कपूर से शादी की फ़रमाइश करना... कई विचारकों का यह भी मानना है कि ऐसे प्रदर्शन से विषमलैंगिकता और प्रजनन की एकतरफा नियमबद्धता से इतर समलैंगिक आकर्षण को हास्य के रूप में जगह मिल जाती है. इस कारण से आरम्भिक दिनों में पुरुषों के स्त्री छद्मवेश को सामाजिक पुंसवादी व्यवस्था के लिए हानिकारक माना गया. पितृसत्ता बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि औरत-मर्द की विभेद जनित असमानता भी बनी रहे.
कामदी में कृत्रिम आवरण धारण किए हुए अभिनेता और अभिनेत्री कई अस्मिताओं में दौड़ लगाकर अन्ततः अपने 'स्व' में यानी पुरुष या स्त्री होने में लौट आते हैं. यही कारण है कि दादी, गुत्थी, पलक आदि के संवादों में उनके पुरुष होने के संवाद बाज़ाब्ता अकबकाए से आ आते हैं. इस तरह सार्वजनिक मंच पर भौंडी साज-सज्जा और अतिरंजित हाव-भाव के द्वारा औरतों की खिल्ली उड़ाकर स्त्री बने पुरुष अन्ततः मँजे हुए अभिनेता और आत्मविश्वासी मर्द के तौर पर सामने आते हैं. औरतें मूर्ख और चंचल नज़र आती हैं. पुंस-प्रभुत्व बना रहता है. मंच पर अधिकांश औरतों (छद्मवेशी सहित) की मौजूदगी के बाद भी पुरुषत्व की जीत सुनिश्चित होती है.
कामदी में भाषा का लचीला और चुटीलापन महत्वपूर्ण होता है. भाषा की कलाबाजी करता कामदीकार महत्वहीन विषय को आवश्यक बनाकर और महत्वपूर्ण को टरकाकर हास्य की रचना करता है. कामदी में भाषा, उसकी अवधारणा और समझ की सभी तार्किक सीमाएँ टूट जाती हैं. अनेकार्थता की संभावना कई गुना बढ़ जाती है. कई बार पंच लाइन के रूप में संदर्भहीन, बेतुकी बातें बोली जाती है. जैसे- कपिल शर्मा का बार-बार 'बाबा जी का ठुल्लू' या गुत्थी का 'जूस मी' कहना. ऐसी बातों की सीमाहीन अनेकार्थता में कई बार अतिरिक्त फूहड़पन की झलक भी मिलती है.
कामदी की संरचना और उसमें औरतों की उपस्थिति, स्वतंत्रता को लेकर सुसैन कार्लसन का कहना है, "कामदी के नाट्य रूपों में स्त्रियों के समूह पर इसकी दो विशेषताएँ लागू होती हैं, कि कामदी में औरतें मूलतः विलोम रचती हैं और सामान्यतः सुखद अंत को अंजाम देती है. कामदी की संरचना में इन दो पहलुओं को देखकर औरतों की सीमाओं को समझा जा सकता है. कामदी में औरतों को उनकी बुद्धिमत्ता, स्वतंत्रता और शक्ति के साथ स्वीकार किया जाता है क्योंकि इस विधा में इन गुणों के विरुद्ध आंतरिक सुरक्षा तंत्र हमेशा सक्रिय रहता है."3 सच यह है कि सामाजिक व्यवस्था में औरत के विनोदी होने, हँसोड़ होने के हक को छीन लिया गया है. स्त्री का जोर-जोर से हँसना, तेज आवाज़ करना, खुशी या आनंद में, चुहल करते हुए लोटपोट होना, शरीर का ध्यान न रखना, नियंत्रित न रह पाना उसे तथाकथित सामाजिक रूपों, शांत, सभ्य, सुसंस्कृत, आज्ञाकारी और पालतू होने के, खिलाफ खड़ा करता है. ऐसे में पितृसत्ताक समाज में उसके सौंदर्य और सद्व्यवहार की रोमानी फैंटेसी में जीनेवालों को तेज धक्का लगता है. अभिनेत्री के तौर पर भी उसके हास्य की क्षमता को स्वीकार न कर विधा की तारीफ में कसीदे पढ़े जाते हैं. अतः सीमित भूमिकाएँ और उस भी स्त्री-विनोद की नामसझी के कारण उसकी सर्जनात्मक प्रतिभा, सामाजिक स्पेस एवं आज़ादी बाधित होती है. इतना अवश्य है कि औरतों ने भी आगे आकर इस विधा में अपनी जगह बनानी शुरू की है. उन्हें स्वीकार भी किया जा रहा है. जरूरत है कि सचेत होकर औरतों के प्रति पूर्वाग्रहों, भद्दे संवादों को छोड़कर सृजनात्मक रूप में उनको पूरी विविधता के साथ स्वीकार किया जाय. इससे विचारधारात्मक तौर पर पुंसवाद के आदर्शवादी छद्म को चुनौती दी जा सकेगी. 

1. Stott, Andrew, 1969, Comedy, Routledge, NewYork, P.11.
2.    Douglas,Mary, 1975, Implicit Meanings: Essays in Anthropology, Routledge and Kegan Paul, London, P.98.
3.   Carlson, Susan, 1991, Women and Comedy: Rewriting the British Theatrical Tradition, University of Michigan Press, Ann Arbor, P.17

बुधवार, 26 जून 2013

मेघे ढाका तारा -‘सेपरेशन इज इसेंशियल’


काफी मुश्किलों के बाद और माँ की अतिशय (और कई बार अचम्भित कर देने वाली) साहसिकता के कारण मेघे ढाका तारा (मेघाच्छादित नक्षत्र) देख ही आई. यह फिल्म बंगाल के प्रसिद्ध फिल्मकार और पटकथा लेखक रित्विक घटक के जीवन और कार्यों के साथ तत्कालीन परिस्थितियों (बंगाल के अकाल, प्रमुख आंदोलनों, स्वतंत्रता प्राप्ति( हस्तांतरण), असंतोष, कम्युनिष्ट पार्टी के दलीय मतभेद, फूट) को लेकर कलाकार के चेतन और अवचेतन के स्तर पर क्रिया प्रतिक्रिया और अंतःक्रिया की मोटी-महीन बुनाई करती चलती है. गौरतलब है कि रित्विक घटक ने स्वयं भी इस नाम से फिल्म बनाई है. कमलेश्वर मुखर्जी द्वारा निर्देशित यह फिल्म मुझे बेहतरीन लगी. शाश्वत चैटर्जी और अनन्या चैटर्जी ने नीलकंठ बागची और दुर्गा बागची के रूप में दो प्रेम करने वाले संवेदनशील लोगों की कहानी कही हैं जिनके बीच का अलगाव ही सत्य है, जरूरी है. तंगहाल दुर्गा कहती भी है -‘सेपरेशन इज इसेंशियल.

क्या कलाकार, रचनाकार होना ही लगभग आत्महंता होना है? बार-बार लगता है कि ईमानदार रचनाकार 'जो है' और 'होना चाहिए' के द्वंद्व में सारे दाँव हारता जाता है. कहने की अपार कोशिशों के बाद उसे पता चलता है कि कोई उसे सुनना ही नहीं चाहता. हाथों से फिसलते जाते सारे तंतु दिमाग और दिल का संतुलन बिगाड़ने लगते हैं. इलेक्ट्रिक शॉक में बेदम होता नीलकंठ डॉक्टर से कहता है कि हजारों बोल्ट के विचार हमेशा उसके दिमाग में चहलकदमी करते हैं. इतने इलेक्ट्रिक शॉक से तो उसे केवल सुरसुरी होती है. ऐसी दुर्दांत चेतना के साथ क्या अकेले हो जाना संभव है...नहीं..बिल्कुल नहीं. लेकिन संयम और संतुलन के बिना तो स्व-विनाश को खुला आमंत्रण भी देना है. गरीबी जनित अभावों, महत्वाकांक्षा तथा मोहभंग के कारण स्वयं से ही उसका संबंध टूट जाता है. वह इतना अकेला हो गया है कि वह खुद भी अपने साथ नहीं और दुर्गा बच्चों के साथ बिल्कुल अकेली..

सामान्य से इतर गहन अनुभूति, पक्षधरता, सिद्धांत तथा मानव सत्य की बात करने वाला क्यों एक पल में समझौताहीन महामानव लगता है जो पागलखाने में पागलों के साथ ही एक नाटक का मंचन कर डालता है और दूसरे ही पल में एक ऐसा इंसान जिसे अपने काम की धुन में पत्नी, तीन बच्चों का कोई ख्याल नहीं रहता. चेतन-अवचेतन में दौड़ लगाते नीलकंठ के लिए असफलता का अवसाद ही सच है. वह जानता है कि पैसा नहीं काम ही बचा रह जाएगा अनवरत (तुम देखना), कि उसका विश्वास सभी में एक मनुष्य होने में है जो धोखेबाज नहीं, कायर नहीं. वहीं बहुत-बहुत प्यार करने वाली पत्नी जो उसकी बीमारी, बढ़ते अतिवाद, न छूटने वाले नशे और परिवार की जद्दोजहद में नौकरी करती है, पढ़ाई करती है. नौकरी व बच्चों के साथ दूर चली जाना चाहती है. वह समझ चुकी है कि नीलकंठ उससे अनजानी दूरियों तक छिटक गया है. उसकी परेशानियाँ वह जानता भले हो पर कर कुछ भी नहीं सकता. वह जब भी उसकी ओर देखती है या उसे सुनते हुए जबरन दूसरी ओर देखने लगती है तो लगता है मानो हताशा में उसके गालों के गड्ढे कहीं ज्यादा गहरे हो गए हैं. जिम्मेदारियों ने साड़ी को गंदला कर दिया है.


उसका सच, उसका जीवन, उसकी चेतना नीलकंठ से इतनी भिन्न हो गई है कि शायद एक-दूसरे को समझना-समझाना-चाहना-बने रहना मुश्किल हो गया है. नीलकंठ को धैर्यहीन सृजन करना है, दुर्गा को बचे हुए को प्राणपण से बचाना है. मनुष्य व उसके सत्य का अर्थ उसके लिए जीवन के उलझे तारों को फिर से करीने से पिरोना है. बाकी शेष बचाना लेना है, संभालना है, संवारना है. वह स्त्री है, तीन बच्चों की माँ है. नीलकंठ को सामाजिक-बौद्धिक दुनिया के लिए प्रतिबद्ध होना है जबकि दुर्गा के लिए दुनिया तो उसके निज के संसार में आसन्न उपस्थित है. उसकी दुनिया में उसके भूखे बच्चे हैं, उनकी शिक्षा-दीक्षा की चिंता है, अदद नौकरी की जरूरत शामिल है. उसे भी अपनी सृष्टि की रक्षा करनी है, संजोना है. निश्चित रूप से उसकी और नीलकंठ की जद्दोजहद दो महत्वपूर्ण रचना संसारों के निर्माण से संबंद्ध है. भिन्न किंतु आवश्यक. साथ चलकर एक दूसरे की बची-खुची शक्ति को छीन लेना प्यार का, जीवन का अपमान ही तो है. ऐसे में अलगाव ही उसका एकमात्र बचाव है. निर्णय दुर्गा का है. वही यह फैसला कर सकती है, उसमें ही यह ताकत है और उसके लिए यह जरूरी भी है. नीलकंठ अपने ही तीव्र वेग में खोया निर्णय लेने की ताकत को खो चुका है. अतएव दुर्गा चुनती है और नीलकंठ स्वीकार करता है. सर्जक होने की कीमत दोनों चुकाते हैं.

शनिवार, 8 जून 2013

हिंदी की स्त्री रचनाकारों का द्वन्द्व


हिंदी साहित्य विशेषकर स्त्री साहित्य की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हमारी जानीमानी लेखिकाएँ भी स्त्रीवाद, स्त्री-लेखन जैसी कोटियों और अवधारणाओं पर न तो विश्वास करती हैं न ही बात करना चाहती हैं. इसके प्रति अमूमन इनका रवैया प्रतिगामी और अवहेलना से पूर्ण होता है. 21वीं सदी में यह भी एक तरह का पिछड़ापन है जहाँ आप स्त्री-विमर्श के अस्तित्व, आवश्यकता और सरोकारों को एकसिरे से नकारती नज़र आती हैं. मई 2013 में प्रकाशित पत्रिका 'समावर्तन' में वरिष्ठ रचनाकार ममता कालिया जी ने साक्षात्कार में कहा है,"...वैसे मैंने पुरुष लेखन और महिला लेखन के विभाजन को मानने से हमेशा इंकार किया है. लेखन, लेखन होता है. स्त्री-पुरुष दोनों की समस्याएँ, संघर्ष और स्वप्न एक-से होते हैं. हाँ, अभिव्यक्ति का तेवर हर रचनाकार का अपना होता है."(पृ.26)

यहाँ समझने की जरूरत यह है कि औरत और मर्द को मात्र मनुष्य के रूप में सामान्यीकृत करके देखना अन्ततः पुंस मानकों में औरत को खड़ा करना है. ऐसे में बराबरी के नाम पर ऐसा घालमेल तैयार होता है जहाँ स्त्री अपनी सारी दिक्कतों और लड़ाईयों के साथ हाशिए पर ढकेल दी जाती है. असलियत यह है कि स्त्री की देह, अंग, प्रजनन तंत्र, इनसे जुड़ी चेतना, उसकी भूमिका, अस्मिता, कामुकता और संघर्ष बिल्कुल पुरुष से भिन्न और विशिष्ट है. वह पुरुष से भिन्न मनुष्य है. उसका होना भिन्न और आवश्यक मनुष्य का होना है. उसकी अनुभूति और प्रभाव भी इसी महत अलगाव को दिखाते हैं. इसी प्रकार लेखन भी हमेशा और केवल लेखन नहीं होता बल्कि उसके अनेकानेक जटिल सूत्र रचनाकार के व्यक्तित्व, चेतना, सरोकारों और जद्दोजहद से जुड़े होते हैं. ऐसे में गौर करें तो बड़ी आसानी से समझ आ जाएगा कि स्त्रियों के कथानक, भाषा, शैली, तकनीक और पूरा रवैया अलग और महत्वपूर्ण जनानी विशिष्टताओं से घिरा होता है. वह सभी विषयों को स्त्री सुलभ अंदाज में उसी संवेदना तथा मन के साथ निभाती नज़र आती है. स्त्री होना पुरुष होना नहीं होता. सफल औरत होना भी मर्द होना नहीं होता. अतः जिस तेवर की बात ममता जी कर रही हैं वह भी स्त्री के निज से होकर ही सामाजिक और राजनीतिक अर्थों में विस्तृत हो जाता है. उसकी समस्याएँ, संघर्ष व सपने मर्दों से न केवल भिन्न होते हैं वरन् घरेलू, शारीरिक, सामाजिक और अब तो पेशेवराना जरूरतों तथा जिम्मेवारियों में उसे कहीं गहरे तक अंतर्द्वन्द्वरत रखते हैं. तोड़ते रहते हैं. संवारते भी हैं. इसी अर्थ में बदलती औरत की भाषा और रवैये और पहलकदमी में काफी अंतर नज़र आता है. जिसे दरकिनार करना संभव नहीं है. ममता जी ने स्वयं बताया भी है,"बीस साल पहले मैंने 'कच्चा चिट्ठा' लिखा था. यह संयोग की ही बात है कि मेरे जन्म के वक्त मेरी दादी बेटी होने पर नाराज़ थी और घर छोड़कर चली गईं थी. उस घटना का असर पूरे घर पर और मेरे ज़ेहन पर लम्बे अरसे तक रहा, सो लिख डाला."(पृ.27). कितने नवजात पुत्रों को ये दिन देखने पड़ते होंगे? इस प्रश्न का जवाब खोजे तो समझ में आ जाएगा कि जन्म से ही स्त्री क्या-क्या झेलती है.

आगे ममता जी कहती हैं,"...इसी तरह दलित महिला लेखन में भी ग़जब धार है उर्मिला पवार, कौशल्या बैसंत्री जी के लेखन का यथार्थ विवरण हिला कर रख देता है. पर इन सब रचनाओं के लिए दलित लेखन का कोष्ठक बनाना मुझे उतना ही नागवार है, जितना स्त्रियों के लिखे हुए को महिला लेखन के कोष्ठक में डालना. छवि के बने बनाए फ्रेम को तोड़कर बाहर निकलने की तड़प स्त्री के अंदर युगों-युगों से मौजूद है. जब स्त्री-विमर्श नाम का ब्रांड बिकाऊ माल नहीं बना था तब भी मुक्ति की कामना और कसमसाहट स्त्री के अंदर गहरे बैठी हुई थी." इस वक्तव्य में वही विरोधाभास नज़र आता है जहाँ दलित महिला लेखन पर बात करते हुए वे दलित लेखन की कोटि को नकारती है. लोकतंत्र के आगमन ने अनेक अस्मिता विमर्शों को पनपने के लिए उर्वर जमीन दी है. दलित, दलित महिला, स्त्री, आदिवासी जैसे दबे कुचले लोगों ने सामने आकर अपने हक और स्वायत्तता के मुद्दे को बार-बार उठाया है. यहाँ समझने की जरूरत है कि दलित महिला की स्थिति भी दलित पुरुष से कहीं ज्यादा बदतर होती है. उसे घर-बाहर दोनों की जिम्मेदारियाँ उठाते हुए ऊँची जातियों, सम्पन्न वर्गों के साथ अपने समाज और घर में पुरुष के वर्चस्व को झेलना पड़ता है. दलित समुदाय में इस तिहरे संघर्ष से जूझती औरत महादलित है. इनकी अलग पहचान जरूरी है तभी इनकी अन्य स्त्री समाज से अलग समस्याओं को समझने का रास्ता खुल सकेगा. स्त्री समाज बहुलतावादी समाज है जिसे इसकी व्यापकता में स्वीकार किया जाना चाहिए. ये केवल अलग कोष्ठक नहीं बल्कि वह मानव प्रजातियाँ है जिनके बारे में हम सोचना, समझना नहीं चाहते थे. जगह देने की बात तो दूर रही.

सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि स्त्री विमर्श को बिकाऊ ब्रांड कहना इसके प्रति उसी पुंसवादी तदर्थ रवैए को दिखाता है जो बार-बार देहवाद के सवाल को उठाकर नैतिक फतवे जारी करने में लगा रहता है. इसमें दिक्कत क्या है यदि औरत अपनी देह, भूमिका, भविष्य स्वयं तय करना चाहती है. इस तरह के बयान वैचारिक हिंसा ही हैं जो औरतों के लिए 'क्या-क्या करें' और 'क्या-क्या न करें' तय कर लेना चाहते हैं. क्यों स्त्रियों पर विश्वास नहीं किया जा सकता? क्यों उनके चुनाव के प्रति आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता? क्यों बार-बार देह और नैतिकता की बेड़ियों में उसे पंगु बनाया जाता है? उसकी नितांत निजी नैतिक पहल के प्रति हम घबड़ाए हुए से क्यों रहते हैं?

देखा जाए तो स्त्री-विमर्श एक जरूरी विमर्श है जो पूरे विश्व भर की औरतों से सरोकार रखता है. यह औरत की उसी 'मुक्ति की कामना और कसमसाहट' की अभिव्यक्ति का ठोस रूप हैं. जिसके कारण आज स्त्री को दरकिनार कर किसी भी प्रकार का विकास, योजना, नीति-विधि निर्माण और पहलकदमी संभव नहीं है. और अंत में, स्त्रीवाद का बड़ा ही सतही अर्थ पुरुषविरोधी होना माना जाता रहा है. इस कारण कई रचनाकार स्त्रीवादी होने के ठप्पे से बचती हुई अपनी उदार, धर्मनिरपेक्ष छवि पर कायम और मुग्ध हैं. नारीवाद वस्तुतः नितान्त व्यक्तिगत-घरेलू , सामाजिक, राजनीतिक, लेखन एवं विमर्श के स्तर पर औरतों के प्रति फैली विषमताओं, उत्पीड़न, असहिष्णुता के खिलाफ प्रतिरोध और सक्रिय विरोध है. जिसे औरतें निजी दायरों से लेकर सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्रों, नीति-निर्माण, आंदोलनों और संरचनागत स्तरों पर जारी रखे हुए हैं. ऐसे में केवल पितृसत्ताक पुरुष ही नहीं औरत भी, संस्थान भी, समाज भी, एकांगी राजनीति भी, ढुलमुल नीतियाँ और लचर क्रियान्वयन भी.. सभी उसके विरोध की ज़द में आ जाते है. विराट नारी संघर्ष ने स्त्री विमर्श, स्त्रीवाद और स्त्री-अध्ययन को विकसित किया है. स्त्री-पुरुष दोनों के ही द्वारा इनका सम्मान किया जाना चाहिए. स्वागत किया जाना चाहिए. हम हिन्दी की रचनाकारों से भी इसी की उम्मीद करते हैं कि वे हमारे हाथों और संघर्षों को मजबूत करें. इस तरह के बयान निश्चित रूप से हतोत्साहित करने वाले हैं.

सोमवार, 27 मई 2013

समलैंगिकता : कुछ जरूरी बातें


 समलैंगिकता विषय पर जरूर बात होनी चाहिए. इसे छिपाना या उस पर दबे गले से बात करना ही इसे टैबू बनाता है. न तो यह विकृति है और न ही जेनेटिक डिस्ऑर्डर (आनुवांशिक गड़बड़ी) है. ऐसे लोग पहले भी रहे हैं जिन्हें हम स्त्री जैसा पुरुष या मर्द जैसी औरत कहते थे. एक अन्य तबका ट्रांसजेंडर्स् (हिजड़ों) का भी है. यह क्रोमोजोम्स की संख्या के अनेकानेक उलटफेरों का परिणाम है. परेशानी हमारे समाज और उसके पूरे व्यवहारिक पैटर्न में है. जहाँ हम हमेशा सारे नियम, कायदे आदर्श स्त्री-पुरुष को ध्यान में रख कर बनाते हैं. ऐसे में जो स्त्री-पुरुष नहीं हैं या भिन्न हैं उन्हें न केवल हाशिए पर ढकेल देते हैं बल्कि उनके प्रति घृणा और विरोध भी पालते रहते हैं. पहले और आज के समाज में यदि कुछ महत्वपूर्ण रूप से बदला है तो वह यह कि अब हाशिए पर फेंक दी गई अस्मिताओं ने भी अपनी न्यायिक जगह और नागरिक अधिकारों के लिए लड़ना शुरु कर दिया है. यच यह है कि कई समाजों में चार-पाँच लिंगों को मान्यता प्राप्त है. समलैंगिक, हिजड़ा होना दुर्भाग्य नहीं होता, परन्तु हाँ, एक अनुदार समाज में इसे दुर्भाग्य अवश्य बना दिया जाता है. जैसे- नारी होना, अछूत होना, निम्न व पिछड़े तबके का होना, आदिवासी होना. अब ये ही लोग केंद्र की शक्तियों के विरोध में अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं, जो कि उचित हैं और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का जरूरी हिस्सा भी है.
समलैंगिकों को समाज से बाहर करना न तो संभव है और न ही उचित. यह असहिष्णु रवैया है कि जो प्रचलित मानकों जैसा न हो उसे त्याज्य मानो. इस परिप्रेक्ष्य में मैं भाषा के संदर्भ में भी बात करना चाहूँगी. हमारी हिंदी में भी नपुंसक लिंग तो कहने के लिए है लेकिन भाषा में उसकी उपस्थिति नहीं दिखती. वह जाता है या जाती है... यदि इससे इतर, स्त्री-पुरुष से अलग, हम कुछ कहना चाहें तो हमारी भाषा हमें कोई मदद नहीं करती. हम अपाहिज महसूस करते हैं. जैसे तुर्कमेनिस्तान में अधिकारिक तौर पर तीन लिंग हैं और भाषा लिंग रहित है. इसके कारण भाषा निश्चित रूप से उदार व्यवहार करती नज़र आती हैं. जेंडर न्यट्रल भाषा बंगाली भी है. लेकिन हिंदी में इस स्वाधीनता का अभाव खटकता है. किस तरह उन्हें पुकारेयह ख़ासा दिक्कत तलब सवाल है जिस पर गंभीरता से सोचने के बजाय मखौल आसानी से बनाया जाता रहा है. गे और लेस्बियन और हिजड़ों को लेकर हम बेहद दकियानूसी ढ़ंग से भद्दे मजाक करते हैं. खुद के सामान्य होने का गर्व हम पर इस तरह हावी होता है कि दूसरों को असामान्य बनाना, तिरस्कृत और अवहेलित करना हमारे तथाकथित शग़ल का हिस्सा है. और हमारी क्रूरता का वाजिब नमूना भी.
हम यह सोचना व समझना ही नहीं चाहते कि ठस्स, सड़े समाजों में ऐसे लोगों का अस्मिता-संघर्ष, जीने-बचे रहने और कुछ कर गुजरने की लड़ाई कितनी बहुस्तरीय और मारक होती होगी. हो ही सकता है कि सामाजिक संरचना में औरत-मर्द को सामने रख कर मानक तय किए जाएँ लेकिन इसके बावजूद अन्यों के लिए व्यापक जगह, उनकी पहचान और हिस्स्दारी भी तय करनी होगी. वर्ना ऐसा इकरंगा, एकायामी, विविधता रहित संसार अपनेआप ही आत्महंता साबित होगा. किसने कहा, किसने तय किया कि प्राणी-शास्त्र और संसार में किसके लिए जगह है, किसके लिए नहीं. समस्या शक्ति संबंधों की भी है जो स्त्री-पुरुष के साथ, विभिन्न जातियों, नस्लों, वर्गों, रंगों में आसानी से देखी जा सकती है जहाँ प्रभुत्वसम्पन्न ही सब कुछ तय करना चाहता है. तय करता है. किंतु इससे अन्य अस्मिताओं, कामुकताओं और अस्तित्वों का अंत नहीं हो जाता. जंग जारी रहती है.
यह समझना बेहद जरूरी है कि जब तक ऐसे लोगों को मान्यता और पहचान नहीं दी जाती तब तक वे सामान्य जीवन तक जीने के लिए तरसते रहेंगे. गलत तरीकों से अपनी क्षुधा मिटाने की कोशिश में अपराधी बनाएँ जाएँगे, मारे जाएंगे. हिजड़ों का उदाहरण देकर समझाना चाहूँगी. वोटर पहचान पत्र के लिए उन्होंने लगातार संघर्ष किया कारण कि बिना मतदाता बने नेताओं के सरोकारों, सरकारी नीतियों और सार्वजनिक विकास की प्रक्रिया में शामिल होना उनके लिए संभव नहीं था. शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी और सुरक्षा के सारे अवसरों को उनसे छिन लिया गया. हम सोचना भी नहीं चाहते कि ऐसे तबके किस कष्ट और दैनंदिन अपमानों को सहते हुए जानवरों से बदतर जीवन जीते चले जा रहे है. उन्हें भी सामान्य लोगों की तरह अच्छी जिन्दगी, अच्छा भोजन, सुविधा, पढ़ाई-लिखाई, सम्मान की नज़र, प्रेम, साहचर्य चाहिए. हर तरफ से तिरस्कृत समुदाय क्या बन सकता है.. दूसरों को जब-तब अभिशाप दिखाकर पैसे गाँठने वाला गिरोह जो कई मायनों में अपराधी भी दिखता है. नई प्रगति यह है कि चुनाव आयोग ने उनकी बातों को मानते हुए उन्हें मतदाता सूची में शामिल करने का फैसला लिया है. ऐसे ज्यादातर लोगों के माँ-पिता का पता नहीं होता अतः वे अपने गुरु का नाम इस्तेमाल कर सकते हैं. यह निश्चित रूप से स्वागत योग्य कदम है. ऐसी माँग वृंदावन की विधवाओं की भी है जो मतदाता सूची में आना चाहती हैं ताकि अपने ही बच्चों द्वारा प्रताड़ित तथा निष्कासित इन लोगों को भी मुख्यधारा में शामिल किया जा सके. उन्हें इसका लाभ भी मिल सके. इसी प्रकार कई देशों ने भी सेम-सेक्स मैरिज को कानूनी रूप से वैध घोषित किया है. इससे कई गैर कानूनी गतिविधियों और उनके दुष्प्रभावों को रोकने में मदद मिलेगी. साथ ही समाज में, लोगों में ऐसे भिन्न प्रकार के मनुष्यों के लिए स्पेस तैयार होगा. जैसे कई बार हम स्त्री, पुरुष को समान मानते हुए जब अपनी बात कहते हैं तो यहाँ भी मर्द प्रमुख हो जाता है. हम उसके नजरिए से देखने और तय करने लगते हैं. स्त्री और पुरुष एक नहीं हैं. वे भिन्न प्रकार के मनुष्य हैं जिन्हें नागरिक अधिकार चाहिए, किंतु फिर भी औरत का होना, अलग तरह के मनुष्य का होना संविधान में भी लैंगिक सहिष्णुता की माँग करता है जो सार्वभौम धर्मनिरपेक्षता के दायरे से भी व्यापक हैं. यही बात हम अन्य लिंगीय अस्मिताओं के लिए भी कह सकते हैं. पहचान और सामाजिक स्वीकार की दरकार उन्हें भी है जिसे हमें अब समझना चाहिए.      
     

शुक्रवार, 3 मई 2013

आप, डरिए मत दीदी..सुख ही सुख है..

आज मैं फिर मिली छोटी बहन के समान रागिनी से. वह ऐसे लोगों की श्रेणी में आती है जिनसे बार-बार बात करने, मिलने का मन हो आए. गाड़ी-बाड़ी(घर)-साड़ी की लफ़्फाजियों से दूर सामान्य-सी बेतकल्लुफ़-सी लड़की. वह हर उस दूसरी लड़की की तरह है जो प्रेम, प्रेमी, पति, ससुराल के अनगिनत सपनों से भरी रहती हैं. मेरे लिए बेहद परेशान. हमेशा कहती है, इसीलिए दीदी पहले से ही किसी को पसंद कर लेना चाहिए. बहुत सारे झंझट खत्म हो जाते हैं. माँ-पिता के भी और अपने भी. फिर हम (माँ भी इस गैंग में हैं) खूब हँसते हैं.
जिससे उसने बेइन्तहा प्यार किया उसी से विवाह करने की बेइन्तहा ज़िद के साथ अड़ी रही. सफल भी हुई. प्रेम की परिणति शादी में हो जरूरी नहीं, प्रेम शादी के लिए किया जाए-यह भी जरूरी नहीं. लेकिन जो प्रेम करते हैं, आगे संबंध को बनाए रखना चाहते हैं, विवाह करना चाहते हैं- ऐसे लोग एक-दूसरे का साथ दे सकें यह भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं. वह और उसका पति अलग-अलग राष्ट्रीय बैंकों के ऊँचे पद पर कार्यरत हैं. वह भी अलग-अलग शहरों में. शादी के 2-3 माह बाद ही मिलने के दौरान उसने गर्भवती होने की सूचना दी. कहा भी कि उसे थोड़ा और समय लेना चाहिए था. विवाह के बाद अपनी जड़ों से उखाड़ दी गई लड़की के लिए समझौता और अनुकूलन की थर्ड डिग्री का बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है. पूछना चाहा कि प्रेमी से पति बने व्यक्ति से भी क्या सुरक्षा के उपायों पर बात नहीं की जा सकती. कभी मित्र रह चुका इंसान इतना करीबी तो होता ही होगा. लेकिन उसने अपने वहीं पुराने धड़ाधड़ अंदाज में बताना जारी रखा कि सास को मालूम था कि शादी के बाद वह ससुराल में पीरियड हुई थी वरना उसे सासू माँ को समझाना मुश्किल होता कि पति से ये नजदीकी वस्तुतः विवाह की पावन अग्नि के चारों तरफ फेरे लेने के बाद की स्वाभाविक योजना का ही हिस्सा भर है. ससुराल के सम्मान को कोई आँच नहीं आई है. सब भगवान की कृपा है, बचा लिया उसने- रागिनी ने उल्टी चल रही साँसों को राहत की बैशाखी थमा दी. इस तुरंता प्रेग्नेंसी ने तो मरवा ही डाला था! लगा जैसे औरत के लिए प्रेम-विवाह भी भारतीय परिवार के परम्परागत माहौल में तयशुदा विवाह के ही समान पावन अग्नि की परीक्षा का वो ऑप्शनल पेपर हैं जो आपको लेना है और पास भी करना है.
बेहद सुंदर दिख रही रागिनी को चिंता इस बात की है कि लोगों ने कहना शुरु कर दिया है कि उसे लड़की होगी. अगर लड़की हुई तो सास का दबाव रहेगा कि दूसरे के लिए ट्राई करो. जिठानी के कई बार गर्भपात करवाने, अपराधबोध से ग्रसित होने के किस्से भी भरे पड़े हैं उसके पास. मैंने कहा, नहीं तुम तय करोगी क्या करना हैं. अपनी देह, सामर्थ्य और इच्छा से जुड़े फैसले तुम्हें करने होगें. तुम जन्म दोगी, तुम देख-रेख करोगी, तुम संभालोगी तो तय दूसरे कैसे कर सकते है? फिलवक्त वह अडिग नज़र आती है..आगे तो उसके भगवान संभाल ही लेंगे.
इस बार वह हप्ते-दस रोज़ के लिए ससुराल गई, किसी तरह एक दिन के लिए मायके जा पाई. पूरे रास्ते सास के फोन आते रहे कि कल जरूर चली आना. कहने लगी, दीदी इतना गुस्सा आ रहा था कि पलट कर ससुराल चली जाऊँ. ऐसे जाकर भी क्या होगा? मायके में भी पूरे दिन मिलने वालों का ताँताँ लगा रहा. माँ से मन भर बातें भी न हो सकीं और दूसरे दिन फिर वही सासू माँ ..
सासरे में मिलने वालों के आगे न चाहते हुए भी उसे बत्तीसी दिखानी थी, नहीं तो सुनना पड़ता बहू हँसमुख नहीं, कमाती है इसलिए घमंडी हो गई है. घर आई सासू-सखियों के सवालों को वह सुन तो सकती थी लेकिन जवाब तो सासू माँ और जिठानी ही देती थी- "अरे! बड़ी खुसमिजाज है तभी तो कलकत्ता में अकेले रह लेती है" और उसे लगता- "मुझे भी तो बताने दीजिए कि कलकत्ते में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है". यह बताते हुए वह फिर हँसती है. उसके लिए दुनिया का सबसे बड़ा दुख न बोल पाना है. निश्चित रूप से इस समय वह दुखी रही होगी.
उसे निकले पेट के साथ घर के कामों में हाथ बँटाना था, सास मना करती हैं पर बहू-धर्म सर्वोपरि है. आराम मिलने की बात पर हँसते-ठुनकते हुए कहती है हाँ मिला ना आराम, जो पैर सूज कर बाद में नार्मल हो जाता था..अब सूजा ही रहता है. दीदी, फूलने-पिचकने की टेंशन खत्म. खटाक से किन्हीं स्मृतियों में जाकर लौटती है- जानती है दी, माँ के यहाँ एक दिन के लिए गई थी ना, इतनी राहत महसूस की कि क्या कहूँ..
मैं केवल उसे सुनने में लगी रही. लगा वो बहुत-बहुत बोलना चाहती है. मुझे सुनना चाहिए. दूसरी ओर समझ में नहीं आ रहा था कि इस सब में उसके प्रेमी-पति(देव) कहाँ बिला गए हैं? रागिनी के इस समूचे ऊहापोह, बनने-बनाने, सिद्ध कर देने की उठापटक में पति की जगह कब परिवार और उसकी अजस्त्र तानाशाही ने ले ली थी, शायद उसे पता भी नहीं. लेकिन वह भविष्य के प्रति आशाओं से लबरेज़ हैं और मुझे अनावश्यक(?) भय से बचाने के लिए कहती है-
ससुराल तो ससुराल ही होता है..
आप, डरिए मत दीदी..सुख ही सुख है..

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

बलात्कार बनाम स्त्री:दशा और दिशा

गत रविवार राजधानी दिल्ली में चलती बस में रात 9 से 10 के बीच 23 वर्षीय मेडिकल की छात्रा से सामूहिक बलात्कार किया गया. उसे बचाने के लिए तत्पर उसके पुरुष मित्र के सिर पर लोहे की रॉड से वार किया गया. बलात्कार के बाद उन्हें मारपीट कर बिना कपडों के चलती बस से बाहर फेंक दिया गया. इस आलेख के लिखे जाने तक युवती की हालत गंभीर बनी हुई है. फटी आंतों, सिर पर 23 टाँकों और क्षतिग्रस्त आंतरिक अंगों के साथ वह बड़े साहस से जिंदगी की जंग मौत से लड़ रही है. युवक फिलहाल प्राथमिक उपचार के बाद सुरक्षित है. पुलिस की सक्रियता के कारण छः में से चार अपराधी 24घंटे के भीतर पकड़े जा चुके हैं. अन्य की खोज जारी है. उच्च न्यायालय ने भी स्वयं संज्ञान लेते हुए पीड़ित और उसके साथी को सरकार द्वारा पूरी चिकित्सकीय सहायता दिए जाने का नोटिस जारी किया है. जन-आंदोलनों और विद्रोहों का माहौल गर्म है. सभी इस हिंसक वारदात के खिलाफ एकजुट हैं.
औरतों के विरुद्ध इस तरह की घटनाएँ अंततः यह साबित करती हैं कि परिवार और समाज में आज भी उसका दर्जा दोयम है. वह मातहत है. लगातार बढ़ती बलात्कार की घटनाओं ने बार-बार और भी वहशीपन के साथ पिछली समस्त नारकीयता को पार कर दिया है. स्त्री के उत्पीड़न का रूप ज्यादा भयावह हो गया है. वह जितनी शिक्षित और स्वावलंबी होने की कोशिश करती है, उतने ही हमले झेलती है. उसकी दयनीयता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पीड़ित होने के बावजूद उसे ही अपराधी घोषित कर पितृसत्ताक उत्पीड़क अपनी पीठ ठोकते हुए नज़रे बचाकर निकल जाते हैं. उसे हमेशा बेवजह की धेरेबंदी में रखने के लिए नैतिकता और पवित्रता के समक्ष जवाबदेह बना दिया जाता है. उसने कैसे कपड़े पहने थे? वह कहाँ थी? उस वक्त  घड़ी की सूई ने किस अंक पर डेरा जमा रखा था? जबकि सचाई यह है कि ज्ञान, महत्वाकांक्षा और आत्मनिर्भरता के लिए तेजी से सक्रिय युवतियों के लिए ये परम्परागत नियम व मानक कोई मूल्य नहीं रखते. पर्देदारी और पुरानी जकड़बंदी में शिक्षा, विकास तथा स्वावलंबन संभव नहीं है.
इस वाकये ने एक ओर लड़कियों की पारिवारिक-सामाजिक स्थिति व सामान्य मानसिकता को कठघरे में खड़ा किया है तो दूसरी ओर इन्हीं परिवारों में पलनेवाले ऐसे पुरुषों की ओर भी ध्यान खींचा है जो स्त्री के प्रति भीषण असम्मान-बोध और नफ़रत से भरे होते हैं. इनका बचपन सामान्यतया बेहद असुरक्षित और बीहड़ होता है. शराबी पिता या अन्य मर्दों की हिंसा झेलती मूक माँ-बहनों को देखते हुए ये बड़े होते हैं. उन्हें औरत की इच्छा, सम्मान का कोई अंदाज ही नहीं होता. वे अपने समस्त दुखों, अभावों, असफलताओं और कष्टों का समाधान औरत की देह से प्रतिशोध लेकर करते है. ऐसी प्रवृत्ति दो तरह के वर्गों में साफ झलकती है, पहले, अर्द्धशिक्षित, बेरोजगार वे लोग जो भीषण गरीबी की मार झेलते हुए रोजी-रोटी के लिए तेजी से स्थान परिवर्तित करते हैं. इनका मूलतः कोई स्थायी पता-ठिकाना नहीं होता. ऐसे लोगों को वारदात के बाद पहचान पाना और गिरफ्त में लेना बहुत मुश्किल होता है. ये भी तत्काल गुम हो जाने की अपनी शक्ति से वाकिफ होते हैं. असंतुष्ट और परेशानहाल यह तबका प्रेम नहीं चाहता बल्कि दूसरों (जो उससे कमजोर हैं, मसलन-महिलाएँ, बच्चे.) को तकलीफ पहुँचाना, कष्ट देना चाहता है. इससे उन्हें विकृत संतोष मिलता है. दूसरा, नव धनाढ्य वर्ग. यह वर्ग देखने में तो आधुनिक और नई सुविधा-सम्पन्नता से लैस दिखता है किंतु कायदे से सामंती संरचना के बाहर नहीं आना चाहता. ऐसे घरों में औरतों को सुरक्षित, सीमित दायरे में ही स्वतंत्रता हासिल होती है. इनकी नाक और मूँछों की परिधि से बाहर स्त्री स्वायत्ता जैसी किसी चीज का वजूद नहीं होता. त्वरित धन-प्राप्ति, अत्यधिक उपभोग की लालसा के कारण सामंती-पितृसत्ताक दायरे में इनका तेजी से अपराधीकरण हुआ है.
'पीड़ित को ज़िंदा लाश मानना', 'एक हादसे के बाद उसके व उसके परिवार के सम्मान की इतिश्री मान लेना', 'उसके द्वारा जीवन भर हिंसा और बलात्कार के दाग व दंश को झेले जाने की अनिवार्यताजैसी मानसिकता अंततः पीड़ित को सामाजिक रूप से अकेला बना देती है. उसे विश्वास दिलाना होगा कि वह सक्षम हैकार्य और व्यक्तित्व ही उसके सम्मान का कारक बनेंगे. औरत की इज्ज़त का आधार उसकी देह नहीं हो सकती. ऐसी सोच के कारण ही हर ऐरा-गैरा उसे उसकी औकात दिखा देने की बात कहता है. और हमारे तथाकथित नेतागण सहानुभूति के नाम पर अंततः उसे उसके दुखद भविष्य की दुहाई देते दिखते हैं.
फिल्मोंगानोंविज्ञापनों, पोर्नोग्राफी के अतिशय प्रचार और कई बार समाचार चैनलों में स्त्री के प्रति अधिकांशतः वस्तुवादी दृष्टिकोण ने उसके प्रति बर्बर हिंसा को जायज़ बनाया है. फिल्मों और टी.वी कार्यक्रमों में स्त्री-पुरुष के एकायामी प्रस्तुतीकरण से बचा जाना चाहिए.  पापुलर मीडिया द्वारा चरित्रों के निर्माण में भीषण घालमेल  किया जाता है. औरत की बुरी छवि निर्मित कर उस पर हुए अत्याचार को वैध नहीं बनाया जा सकता. वैसे ही आक्रामक, गालियाँ बकनेवाले पुरुष को नायक बनाया जाना गलत सामाजिक संदेश देता है. वहीं समाचार चैनलों में बलात्कार की त्रासदी को सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत करना बेहद संवेदनशील विषय को बाजारू बना देना है. अतः आवश्यक है कि ऐसे हादसों की, न्यायिक पहलकदमी की क्रमवार रपट से जनता को अवगत कराया जाए. ताकि समाज में यह संदेश पहुँचे कि ऐसे कुकृत्यों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. संचार माध्यमों को औरतों की देह व यौनिकता के सकारात्मक प्रस्तुतियों पर ध्यान देना होगा. स्त्री-सुरक्षा, जागरूकता को फिलवक्त मुख्य मुद्दा बनाना होगा.
पुलिसिया प्रशासन और न्यायिक प्रक्रिया में हावी पुंसवादी मानसिकता से निजाद पाना जरूरी है. आलम यह है कि जितने बलात्कार होते हैं उतने दर्ज नहीं होते. जितने दर्ज भी होते हैं वो पहले से मौजूद इकतरफा रवैये, धीमी न्यायिक प्रक्रिया और शोषित के प्रति असहिष्णु व्यवहार की भेंट चढ़ जाते हैं. महिला पुलिसकर्मियों की कमी भी है. इसलिए पुलिसवालों का लैंगिक संवेदनशीलता के नजरिए से पूरा सुधार किया जाना चाहिए. प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. गवाहों की विडियो रिकार्डिंग के बाद जल्द चार्जशीट दाखिल की जानी चाहिए. ऐसे मामलों की समय-सीमा तय की जानी चाहिए ताकि न्याय शीघ्रातिशीघ्र मिल सके. पीड़ित की दुरावस्था को देखते हुए कड़े दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए. हालत इतनी बुरी हो गई है कि इन अपराधियों के मनोबल को गिराने के लिए मृत्यु-दंड का प्रावधान उचित लगता है, जिससे कि मासूम बच्चों और लड़कियों पर हाथ डालने से पहले वे भयभीत हो जाएँ.
इन अपराधों के खिलाफ कठोर रूख साथ ही सुरक्षा व सूचना के लिए आधुनिक यंत्रों का प्रयोग, सिविल पुलिसिंग, हेल्पलाइन, वीमेन सेल, ताकतवर, अधिकार-सम्पन्न महिला पुलिस, सरकार-विभिन्न राज्यों की पुलिस और स्थानीय संस्थाओं में सामंजस्य , रेप-क्राइसिस सेंटर की स्थापना और कानूनों के प्रति जागरूकता को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए. सबसे जरूरी बिंदु यह कि समाज के नाम पर केवल वर्चुअल समाज या दीवारों से अँटा समाज न बनाकर खुलेपन, सहयोग और संवाद पर ध्यान दिया जाना चाहिए. अपने पास-पड़ोस की जानकारी रखी जानी चाहिए. औरतों की सुविधा के लिए उनके निजी पार्क, कॉफी हाउस, घुमने-फिरने की जगहें, यायायात की विशेष सुविधा होनी चाहिए.
युवतियों को स्वयं से, अपनी देह और लौंगिकता से परिचय के साथ आत्म-रक्षा के उपायों से लैस होना होगा. उन्हें समझना होगा कि छेड़छाड़, बलात्कार, हिंसा उनके मानवाधिकारों का हनन है. अब तक चले आए चुप्पी के षड्यंत्र को उन्हें तोड़ना होगा. अपनी आपबीती सामने आकर कहनी होगी. आत्म-भय, समाज-भय से लड़ना होगा. खुद से प्रेम करना होगा. तभी वे भय-मुक्त हो, वर्जना-मुक्त हो आगे बढ़ पाएँगी, अन्यों से सहज हो प्रेम कर सकेंगी. सम्मान अर्जित कर सकेंगी.
(मुक्ति के स्वर पत्रिका में प्रकाशित)    

बुधवार, 2 जनवरी 2013

एकसमान नागरिक संहिता बनाम स्त्री

संवैधानिक तंत्र में कई संरचनागत खामियों और मौजूदा कानूनों के क्रियान्वयन के अभाव ने भारतीय स्त्री को अपाहिज बनाए रखा है. उसके पास वह बुनियादी ढाँचा ही नहीं है जहाँ वे अपनी शक्ति का स्वयं और समाज के हित में उपयोग कर सके. यों तो उसके पास समान नागरिक होने का अधिकार है पर यथार्थतः नहीं है. गौरतलब है कि औपनिवेशिक काल की अनेक समस्याएँ स्वाधीन भारत को आनुवांशिक रूप से मिली. उस पर भी विकल्पहीन पितृसत्ताक राजनीतिक रवैये ने समय व समाज की माँग को लगातार दरकिनार किया. एक ओर लिंगीय भेदभाव तो दूसरी ओर ब्रितानी शासकों द्वारा जातिगत आधार पर विभिन्न समुदायों को अलग-अलग कानून प्रदान कर दिए गए. फलस्वरूप विभिन्न जनसमुदाय निजी धार्मिक नियमों (पर्सनल लॉ) द्वारा संचालित होने लगे. अतः भारतीय महिलाओं का तिहरा शोषण जारी रहा, पहला, औपनिवेशिक शासन के कारण, दूसरा, मान्य लिंगभेद और तीसरा, सामाजिक-धार्मिक पूर्वाग्रहों और सीमित समाज सुधार की परिकल्पना के कारण.
पीड़ित नारी समाज ने अडिग होकर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समान नागरिकता की माँग की. आगे चलकर अनुच्छेद 44 में संविधान के समक्ष सभी नागरिकों को समान अधिकार दिया गया तथा समान कानूनी सुरक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी स्वीकार की गई. यहीं नहीं औरतों की सुरक्षा व समानता के हेतु कई प्रावधान निर्धारित किए गए. एकसमान नागरिक संहिता में धर्म, जाति, सम्प्रदाय से इतर हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी और अनुसूचित जातियों इत्यादि सबके लिए एक कानून के साथ सभी समुदायों में स्त्री-पुरुष की अधिकारगत एकरूपता को महत्वपूर्ण माना गया. इनका उल्लंघन किए जाने पर कोई भी नागरिक राज्य के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता है. इस कानून के साथ निजी कानूनों की उपस्थिति ने पारम्परिक असमानता और पूर्वाग्रहों को बनाए रखा. पुंसवादी मानसिकता के कारण लौंगिक रूप से धर्मनिरपेक्ष संहिता का रूपांतरण पुरुष, जाति, वर्ग और बहुसंख्यक समाज के विशेषाधिकार के रूप में हो गया है. आज भी स्त्री हित में कानून पारित करना और उसे लागू करना टेढ़ी खीर हैं.
आठवें दशक में पर्सनल लॉ के स्त्री विरोधी प्रावधानों को लेकर महिला आंदोलन व्यापक रूप से सक्रिय रहा. सन् 1985 में चर्चित शाहबानो केस में उसके पति द्वारा गुजारा भत्ता न दिए जाने पर जनवादी महिला समिति, महिला दक्षता समिति, राष्ट्रीय महिला संघ, दहेज विरोधी चेतना मंच ने आंदोलन किया और गिरफ्तारियाँ दीं. नारीवादियों, समाज-सुधारकों और मुस्लिम उदारवादियो द्वारा यह माँग की गई कि पर्सनल लॉ में सुधार किया जाए तथा धारा 125 (जो सभी धार्मिक बंधनों से मुक्त और ऊपर है) को लागू किया जाए और शाहबानो को उसके पति द्वारा गुजारा भत्ता दिए जाने की अपील की गई. इन व्यापक जनांदोलनों के बावजूद संसद में मुस्लिम महिला संरक्षण विधेयक पेश किया गया. स्वायत्त महिला संगठनों और राजनीतिक महिला संगठनों ने इसका पुरजोर विरोध कर धर्म को राजनीति से दूर रखने, चुनावी रणनीति के तहत साम्प्रदायिक और धर्मांध लोगों को दी जानेवाली तात्कालिक प्रलोभन की मंशा से निजाद पाने एवं धर्म को व्यक्तिगत संबंधों का संचालक तत्व न बनाए जाने की माँग की. किंतु वोटो की राजनीति और खास बड़े तबके को खुश रखने हेतु सरकार ने धर्मनिरपेक्षता की एक बिल्कुल भिन्न परिभाषा सर्जित की जिसके अनुसार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने सभी सम्प्रदायों के निजी कानूनों को शासकीय मंजूरी दे दी. स्त्री हितों और विकास को सरकारी प्रतिगामी रवैये ने गहरा आघात पहुँचाया. महिला संगठनों, नारीवादियों, उदारवादियों द्वारा किए गए प्रयास शून्य पर खड़े हो गए.
शाहबानो केस के बाद मैरी राय और शहनाज शेख ने ईसाई व मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ याचिका दायर की. उन पर तत्ववादी साम्प्रदायिक गुटों की ओर से भीषण दबाव डाला गया. रूढ़िवाद और ठस्स साम्प्रदायिकता के गाढ़े रंग में जरूरी मुद्दे खो गए. इसी प्रकार सिख पर्सनल लॉ में 'चादर अंदाजी' के प्रावधान का महिला संगठनों ने विरोध किया. सिख पर्सनल लॉ में स्त्री का सम्पत्ति पर अधिकार नहीं होता तथा पति की मृत्यु के उपरांत स्त्री का विवाह पति के छोटे भाई (देवर) से बिना उसकी सहमति लिए कर दिया जाता है. सड़कों पर उतर कर औरतों ने इन प्रावधानों का विरोध तो किया लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात. सरकारी इच्छा-शक्ति का पता इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि भारी दबाव में आकर 1987 में कमीशन ऑफ सती प्रीवेन्शन एक्ट पारित किया गया जिसमें सती को आत्महत्या के रूप में परिभाषित किया गया. पारिवारिक सम्पत्ति-शास्त्र, स्त्री का कामुक नियंत्रण और हिंसा के सभी प्रकार के कारकों को दरकिनार करते हुए आत्महत्या की कोशिश करनेवाले व्यक्ति को दंडित करने का प्रावधान किया गया जो कि स्वयं पीड़ित औरत थी.  
आज भी औरत के खिलाफ हिंसा के, बलात्कार के कानूनों में अनेक कमियाँ मौजूद हैं. शादी के बाद जमा की गई संपत्ति, घरेलू श्रम की उत्पादकता की पहचान, राजनीतिक आरक्षण के मसले समस्याप्रद बने हुए हैं. यहाँ तक कि तलाक का कानून भी मूल आधारों को लेकर अंतर्विरोधग्रस्त है. ईसाई पर्सनल लॉ में परगमन करनेवाले पुरुष से स्त्री को तलाक का अधिकार प्राप्त नहीं है जबकि पुरुष को है. तलाक के साथ बच्चों की सुरक्षा, संरक्षण और भविष्य से जुड़े गम्भीर मसले हैं. वेतन व श्रम के कानूनों के बावजूद उनकी अवहेलना जारी है.
नवउदारवाद और ढ़ाँचागत समायोजन की प्रक्रिया ने स्त्री-मुक्ति का छद्म निर्मित किया है. औरत पहले से ज्यादा गरीब हुई है. पामाली ने लैंगिक विभाजन को भी बड़ा कर दिया है. उसे सहायक श्रम माने जाने के कारण पुरुष को काम पहले मिलता है. उसका उपयोग तात्कालिक संरक्षित श्रम के रूप में होता है. बाद में काम मिलता है और निकाली पहले जाती है. नई अर्थनीति ने उसके वैतनिक और अवैतनिक रूपों पर बुरा प्रभाव डाला है. सरकार की लोक-कल्याणकारी खर्चों में कटौती, बेरोजगारी, अस्थिर आय और चीज़ों की बढ़ती कीमतों के कारण औरत की गतिविधि ज्यादा प्रभावित होती है. उसे घरेलू श्रम के साथ अल्पकालिक काम भी करने पड़ते हैं. परिवार में ज़रूरतों, सुविधा, सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिहाज से वह सबसे निचले पायदान पर खड़ी होती है. वह स्वयं, उसके आत्मीय और व्यवस्था मिलकर उसकी अनदेखी करते हैं. देखा जाए तो उसकी बेगारी, मुफ्त आर्थिक सहायता बढ़ी है. अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति से सम्बद्ध नेत्री बृंदा कारात का मानना है कि ''वास्तव में जहाँ तक महिलाओं के अधिकारों का संबंध है, यह एक धोखा है क्योंकि कोई भी ऐसे कानून मौजूद नहीं हैं जो कि 'बेहतरीन कानून' माने जाएं. ऐसा संभव है कि कुछ कानून हों जो तुलनात्मक रूप से बेहतर हों पर फिर भी वे महिला और पुरुष के बीच असमानता पर आधारित हैं और एकछत्री कानून का आधार नहीं बन सकते.''
बृंदा कारात कानूनों को लैंगिक रूप में सहिष्णु बनाने पर जोर देती हैं और मानती हैं कि इसका स्वरूप वर्तमान धर्मनिरपेक्ष संविधान के ढ़ाँचे से परे भी फैला हुआ है. कारण कि धर्मनिरपेक्ष संविधान की संरचना कई मायनों में प्रतिकूल दिशा में उत्पादक रही है. साथ ही वे यह आशंका भी व्यक्त करती हैं कि यह मसला अधिक धैर्य, लम्बे समय और राजनीतिक इच्छा-शक्ति की माँग करता है जो तत्कालीन मामलों व सुधार में भटकाव भी ला सकता है- ''क्या तुरंत समान नागरिक संहिता (कॉमन सीविल कोड) के लिए नारा आज भारतीय महिलाओं के हित में है? आज भारतीय महिलाओं की जो आवश्यकता है उससे संबंधित उन नाजुक विषयों पर एक लैंगिक दृष्टि से न्यायसंगत कानून जो कि धार्मिक विश्वासों पर आधारित कानून या यहाँ तक कि देश में मौजूदा धर्मनिरपेक्ष कानून के द्वारा निर्धारित ढाँचों के भी परे जाता है. लैंगिक दृष्टि से निष्पक्ष न्याय और समानता की संवैधानिक गारंटियाँ जरूरी नहीं हैं कि कानूनों के किसी ढ़ाँचे से जुड़ी हों. बल्कि मौजूदा कानूनी ढ़ाँचे में तो एकछत्री कानून बहुत हद तक प्रतिकूल उत्पादक हो सकता है. इस मुद्दे को उठाना भी कानूनी सुधार क्षेत्र में जो तुरंत प्राप्त किया जा सकता है उससे एक भटकाव हो सकता है.'' अतः उपस्थित कानूनों में व्यापक सुधार की दरकार है.

कानूनों के द्वारा समाजिक परिवर्तन को दिशा मिलती है, दबाव बढ़ता है. किंतु केवल नियम-कानून वैकल्पिक सामाजिक परिवर्तन नहीं कर सकते हैं. एक ओर असल समस्याओं की पहचान जरूरी है दूसरी ओर, दलितों, पिछडों और महिलाओं को लेकर संवेदनशील होना भी जरूरी है. संविधान में पितृसत्ता को समस्या न मानकर सामान्य सामाजिक स्वभाव के रूप में देखना औरतों और पिछड़े तबकों के लिए हानिकारक है. पितृसत्ता एवं उसकी वैचारिकता से संघर्ष की आवश्यकता है ताकि न केवल कानून बनें बल्कि वे प्रभावी भी हों. मानवाधिकारों और सामाजिक रवैये को सही दिशा मिले. औरतों की राजनीतिक सचेतनता व कानूनी जागरूकता को बढ़ाने की आवश्यकता है. नीति-नियामक पदों पर उसकी हिस्सेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए