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साहित्य विशेषकर स्त्री साहित्य की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हमारी जानीमानी
लेखिकाएँ भी स्त्रीवाद, स्त्री-लेखन जैसी कोटियों और अवधारणाओं पर न तो विश्वास
करती हैं न ही बात करना चाहती हैं. इसके प्रति अमूमन इनका रवैया प्रतिगामी और
अवहेलना से पूर्ण होता है. 21वीं सदी में यह भी एक तरह का पिछड़ापन है जहाँ आप
स्त्री-विमर्श के अस्तित्व, आवश्यकता और सरोकारों को एकसिरे से नकारती नज़र आती
हैं. मई 2013 में प्रकाशित पत्रिका 'समावर्तन' में वरिष्ठ रचनाकार ममता कालिया जी
ने साक्षात्कार में कहा है,"...वैसे मैंने पुरुष लेखन और महिला लेखन के
विभाजन को मानने से हमेशा इंकार किया है. लेखन, लेखन होता है. स्त्री-पुरुष दोनों
की समस्याएँ, संघर्ष और स्वप्न एक-से होते हैं. हाँ, अभिव्यक्ति का तेवर हर
रचनाकार का अपना होता है."(पृ.26)
यहाँ
समझने की जरूरत यह है कि औरत और मर्द को मात्र मनुष्य के रूप में सामान्यीकृत करके
देखना अन्ततः पुंस मानकों में औरत को खड़ा करना है. ऐसे में बराबरी के नाम पर ऐसा
घालमेल तैयार होता है जहाँ स्त्री अपनी सारी दिक्कतों और लड़ाईयों के साथ हाशिए पर
ढकेल दी जाती है. असलियत यह है कि स्त्री की देह, अंग, प्रजनन तंत्र, इनसे जुड़ी
चेतना, उसकी भूमिका, अस्मिता, कामुकता और संघर्ष बिल्कुल पुरुष से भिन्न और
विशिष्ट है. वह पुरुष से भिन्न मनुष्य है. उसका होना भिन्न और आवश्यक मनुष्य का
होना है. उसकी अनुभूति और प्रभाव भी इसी महत अलगाव को दिखाते हैं. इसी प्रकार लेखन
भी हमेशा और केवल लेखन नहीं होता बल्कि उसके अनेकानेक जटिल सूत्र रचनाकार के
व्यक्तित्व, चेतना, सरोकारों और जद्दोजहद से जुड़े होते हैं. ऐसे में गौर करें तो
बड़ी आसानी से समझ आ जाएगा कि स्त्रियों के कथानक, भाषा, शैली, तकनीक और पूरा
रवैया अलग और महत्वपूर्ण जनानी विशिष्टताओं से घिरा होता है. वह सभी विषयों को
स्त्री सुलभ अंदाज में उसी संवेदना तथा मन के साथ निभाती नज़र आती है. स्त्री होना
पुरुष होना नहीं होता. सफल औरत होना भी मर्द होना नहीं होता. अतः जिस तेवर की बात
ममता जी कर रही हैं वह भी स्त्री के निज से होकर ही सामाजिक और राजनीतिक अर्थों
में विस्तृत हो जाता है. उसकी समस्याएँ, संघर्ष व सपने मर्दों से न केवल भिन्न
होते हैं वरन् घरेलू, शारीरिक, सामाजिक और अब तो पेशेवराना जरूरतों तथा
जिम्मेवारियों में उसे कहीं गहरे तक अंतर्द्वन्द्वरत रखते हैं. तोड़ते रहते हैं.
संवारते भी हैं. इसी अर्थ में बदलती औरत की भाषा और रवैये और पहलकदमी में काफी
अंतर नज़र आता है. जिसे दरकिनार करना संभव नहीं है. ममता जी ने स्वयं बताया भी है,"बीस
साल पहले मैंने 'कच्चा चिट्ठा' लिखा था. यह संयोग की ही बात है कि मेरे जन्म के
वक्त मेरी दादी बेटी होने पर नाराज़ थी और घर छोड़कर चली गईं थी. उस घटना का असर
पूरे घर पर और मेरे ज़ेहन पर लम्बे अरसे तक रहा, सो लिख डाला."(पृ.27). कितने
नवजात पुत्रों को ये दिन देखने पड़ते होंगे? इस प्रश्न का जवाब खोजे तो समझ में आ
जाएगा कि जन्म से ही स्त्री क्या-क्या झेलती है.
आगे ममता जी कहती हैं,"...इसी तरह दलित
महिला लेखन में भी ग़जब धार है उर्मिला पवार, कौशल्या बैसंत्री जी के लेखन का
यथार्थ विवरण हिला कर रख देता है. पर इन सब रचनाओं के लिए दलित लेखन का कोष्ठक
बनाना मुझे उतना ही नागवार है, जितना स्त्रियों के लिखे हुए को महिला लेखन के
कोष्ठक में डालना. छवि के बने बनाए फ्रेम को तोड़कर बाहर निकलने की तड़प स्त्री के
अंदर युगों-युगों से मौजूद है. जब स्त्री-विमर्श नाम का ब्रांड बिकाऊ माल नहीं बना
था तब भी मुक्ति की कामना और कसमसाहट स्त्री के अंदर गहरे बैठी हुई थी." इस
वक्तव्य में वही विरोधाभास नज़र आता है जहाँ दलित महिला लेखन पर बात करते हुए वे दलित
लेखन की कोटि को नकारती है. लोकतंत्र के आगमन ने अनेक अस्मिता विमर्शों को पनपने
के लिए उर्वर जमीन दी है. दलित, दलित महिला, स्त्री, आदिवासी जैसे दबे कुचले लोगों
ने सामने आकर अपने हक और स्वायत्तता के मुद्दे को बार-बार उठाया है. यहाँ समझने की
जरूरत है कि दलित महिला की स्थिति भी दलित पुरुष से कहीं ज्यादा बदतर होती है. उसे
घर-बाहर दोनों की जिम्मेदारियाँ उठाते हुए ऊँची जातियों, सम्पन्न वर्गों के साथ
अपने समाज और घर में पुरुष के वर्चस्व को झेलना पड़ता है. दलित समुदाय में इस
तिहरे संघर्ष से जूझती औरत महादलित है. इनकी अलग पहचान जरूरी है तभी इनकी अन्य
स्त्री समाज से अलग समस्याओं को समझने का रास्ता खुल सकेगा. स्त्री समाज बहुलतावादी
समाज है जिसे इसकी व्यापकता में स्वीकार किया जाना चाहिए. ये केवल अलग कोष्ठक नहीं
बल्कि वह मानव प्रजातियाँ है जिनके बारे में हम सोचना, समझना नहीं चाहते थे. जगह
देने की बात तो दूर रही.
सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि स्त्री विमर्श
को बिकाऊ ब्रांड कहना इसके प्रति उसी पुंसवादी तदर्थ रवैए को दिखाता है जो बार-बार
देहवाद के सवाल को उठाकर नैतिक फतवे जारी करने में लगा रहता है. इसमें दिक्कत क्या
है यदि औरत अपनी देह, भूमिका, भविष्य स्वयं तय करना चाहती है. इस तरह के बयान
वैचारिक हिंसा ही हैं जो औरतों के लिए 'क्या-क्या करें' और 'क्या-क्या न करें' तय
कर लेना चाहते हैं. क्यों स्त्रियों पर विश्वास नहीं किया जा सकता? क्यों उनके
चुनाव के प्रति आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता? क्यों बार-बार देह और नैतिकता की
बेड़ियों में उसे पंगु बनाया जाता है? उसकी नितांत निजी नैतिक पहल के प्रति हम घबड़ाए
हुए से क्यों रहते हैं?
देखा जाए तो स्त्री-विमर्श एक जरूरी विमर्श है जो
पूरे विश्व भर की औरतों से सरोकार रखता है. यह औरत की उसी 'मुक्ति की कामना और
कसमसाहट' की अभिव्यक्ति का ठोस रूप हैं. जिसके कारण आज स्त्री को दरकिनार कर किसी
भी प्रकार का विकास, योजना, नीति-विधि निर्माण और पहलकदमी संभव नहीं है. और अंत
में, स्त्रीवाद का बड़ा ही सतही अर्थ पुरुषविरोधी होना माना जाता रहा है. इस कारण
कई रचनाकार स्त्रीवादी होने के ठप्पे से बचती हुई अपनी उदार, धर्मनिरपेक्ष छवि पर
कायम और मुग्ध हैं. नारीवाद वस्तुतः नितान्त व्यक्तिगत-घरेलू , सामाजिक, राजनीतिक,
लेखन एवं विमर्श के स्तर पर औरतों के प्रति फैली विषमताओं, उत्पीड़न, असहिष्णुता
के खिलाफ प्रतिरोध और सक्रिय विरोध है. जिसे औरतें निजी दायरों से लेकर सामाजिक,
राजनीतिक क्षेत्रों, नीति-निर्माण, आंदोलनों और संरचनागत स्तरों पर जारी रखे हुए
हैं. ऐसे में केवल पितृसत्ताक पुरुष ही नहीं औरत भी, संस्थान भी, समाज भी, एकांगी
राजनीति भी, ढुलमुल नीतियाँ और लचर क्रियान्वयन भी.. सभी उसके विरोध की ज़द में आ
जाते है. विराट नारी संघर्ष ने स्त्री विमर्श, स्त्रीवाद और स्त्री-अध्ययन को
विकसित किया है. स्त्री-पुरुष दोनों के ही द्वारा इनका सम्मान किया जाना चाहिए.
स्वागत किया जाना चाहिए. हम हिन्दी की रचनाकारों से भी इसी की उम्मीद करते हैं कि
वे हमारे हाथों और संघर्षों को मजबूत करें. इस तरह के बयान निश्चित रूप से
हतोत्साहित करने वाले हैं.
WELL WRITTEN .
जवाब देंहटाएंmujhe nhi pta, na mai jani hu, na mani, kis trh ka lekhan ho raha h, ynha
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