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सोमवार, 27 मई 2013

समलैंगिकता : कुछ जरूरी बातें


 समलैंगिकता विषय पर जरूर बात होनी चाहिए. इसे छिपाना या उस पर दबे गले से बात करना ही इसे टैबू बनाता है. न तो यह विकृति है और न ही जेनेटिक डिस्ऑर्डर (आनुवांशिक गड़बड़ी) है. ऐसे लोग पहले भी रहे हैं जिन्हें हम स्त्री जैसा पुरुष या मर्द जैसी औरत कहते थे. एक अन्य तबका ट्रांसजेंडर्स् (हिजड़ों) का भी है. यह क्रोमोजोम्स की संख्या के अनेकानेक उलटफेरों का परिणाम है. परेशानी हमारे समाज और उसके पूरे व्यवहारिक पैटर्न में है. जहाँ हम हमेशा सारे नियम, कायदे आदर्श स्त्री-पुरुष को ध्यान में रख कर बनाते हैं. ऐसे में जो स्त्री-पुरुष नहीं हैं या भिन्न हैं उन्हें न केवल हाशिए पर ढकेल देते हैं बल्कि उनके प्रति घृणा और विरोध भी पालते रहते हैं. पहले और आज के समाज में यदि कुछ महत्वपूर्ण रूप से बदला है तो वह यह कि अब हाशिए पर फेंक दी गई अस्मिताओं ने भी अपनी न्यायिक जगह और नागरिक अधिकारों के लिए लड़ना शुरु कर दिया है. यच यह है कि कई समाजों में चार-पाँच लिंगों को मान्यता प्राप्त है. समलैंगिक, हिजड़ा होना दुर्भाग्य नहीं होता, परन्तु हाँ, एक अनुदार समाज में इसे दुर्भाग्य अवश्य बना दिया जाता है. जैसे- नारी होना, अछूत होना, निम्न व पिछड़े तबके का होना, आदिवासी होना. अब ये ही लोग केंद्र की शक्तियों के विरोध में अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं, जो कि उचित हैं और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का जरूरी हिस्सा भी है.
समलैंगिकों को समाज से बाहर करना न तो संभव है और न ही उचित. यह असहिष्णु रवैया है कि जो प्रचलित मानकों जैसा न हो उसे त्याज्य मानो. इस परिप्रेक्ष्य में मैं भाषा के संदर्भ में भी बात करना चाहूँगी. हमारी हिंदी में भी नपुंसक लिंग तो कहने के लिए है लेकिन भाषा में उसकी उपस्थिति नहीं दिखती. वह जाता है या जाती है... यदि इससे इतर, स्त्री-पुरुष से अलग, हम कुछ कहना चाहें तो हमारी भाषा हमें कोई मदद नहीं करती. हम अपाहिज महसूस करते हैं. जैसे तुर्कमेनिस्तान में अधिकारिक तौर पर तीन लिंग हैं और भाषा लिंग रहित है. इसके कारण भाषा निश्चित रूप से उदार व्यवहार करती नज़र आती हैं. जेंडर न्यट्रल भाषा बंगाली भी है. लेकिन हिंदी में इस स्वाधीनता का अभाव खटकता है. किस तरह उन्हें पुकारेयह ख़ासा दिक्कत तलब सवाल है जिस पर गंभीरता से सोचने के बजाय मखौल आसानी से बनाया जाता रहा है. गे और लेस्बियन और हिजड़ों को लेकर हम बेहद दकियानूसी ढ़ंग से भद्दे मजाक करते हैं. खुद के सामान्य होने का गर्व हम पर इस तरह हावी होता है कि दूसरों को असामान्य बनाना, तिरस्कृत और अवहेलित करना हमारे तथाकथित शग़ल का हिस्सा है. और हमारी क्रूरता का वाजिब नमूना भी.
हम यह सोचना व समझना ही नहीं चाहते कि ठस्स, सड़े समाजों में ऐसे लोगों का अस्मिता-संघर्ष, जीने-बचे रहने और कुछ कर गुजरने की लड़ाई कितनी बहुस्तरीय और मारक होती होगी. हो ही सकता है कि सामाजिक संरचना में औरत-मर्द को सामने रख कर मानक तय किए जाएँ लेकिन इसके बावजूद अन्यों के लिए व्यापक जगह, उनकी पहचान और हिस्स्दारी भी तय करनी होगी. वर्ना ऐसा इकरंगा, एकायामी, विविधता रहित संसार अपनेआप ही आत्महंता साबित होगा. किसने कहा, किसने तय किया कि प्राणी-शास्त्र और संसार में किसके लिए जगह है, किसके लिए नहीं. समस्या शक्ति संबंधों की भी है जो स्त्री-पुरुष के साथ, विभिन्न जातियों, नस्लों, वर्गों, रंगों में आसानी से देखी जा सकती है जहाँ प्रभुत्वसम्पन्न ही सब कुछ तय करना चाहता है. तय करता है. किंतु इससे अन्य अस्मिताओं, कामुकताओं और अस्तित्वों का अंत नहीं हो जाता. जंग जारी रहती है.
यह समझना बेहद जरूरी है कि जब तक ऐसे लोगों को मान्यता और पहचान नहीं दी जाती तब तक वे सामान्य जीवन तक जीने के लिए तरसते रहेंगे. गलत तरीकों से अपनी क्षुधा मिटाने की कोशिश में अपराधी बनाएँ जाएँगे, मारे जाएंगे. हिजड़ों का उदाहरण देकर समझाना चाहूँगी. वोटर पहचान पत्र के लिए उन्होंने लगातार संघर्ष किया कारण कि बिना मतदाता बने नेताओं के सरोकारों, सरकारी नीतियों और सार्वजनिक विकास की प्रक्रिया में शामिल होना उनके लिए संभव नहीं था. शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी और सुरक्षा के सारे अवसरों को उनसे छिन लिया गया. हम सोचना भी नहीं चाहते कि ऐसे तबके किस कष्ट और दैनंदिन अपमानों को सहते हुए जानवरों से बदतर जीवन जीते चले जा रहे है. उन्हें भी सामान्य लोगों की तरह अच्छी जिन्दगी, अच्छा भोजन, सुविधा, पढ़ाई-लिखाई, सम्मान की नज़र, प्रेम, साहचर्य चाहिए. हर तरफ से तिरस्कृत समुदाय क्या बन सकता है.. दूसरों को जब-तब अभिशाप दिखाकर पैसे गाँठने वाला गिरोह जो कई मायनों में अपराधी भी दिखता है. नई प्रगति यह है कि चुनाव आयोग ने उनकी बातों को मानते हुए उन्हें मतदाता सूची में शामिल करने का फैसला लिया है. ऐसे ज्यादातर लोगों के माँ-पिता का पता नहीं होता अतः वे अपने गुरु का नाम इस्तेमाल कर सकते हैं. यह निश्चित रूप से स्वागत योग्य कदम है. ऐसी माँग वृंदावन की विधवाओं की भी है जो मतदाता सूची में आना चाहती हैं ताकि अपने ही बच्चों द्वारा प्रताड़ित तथा निष्कासित इन लोगों को भी मुख्यधारा में शामिल किया जा सके. उन्हें इसका लाभ भी मिल सके. इसी प्रकार कई देशों ने भी सेम-सेक्स मैरिज को कानूनी रूप से वैध घोषित किया है. इससे कई गैर कानूनी गतिविधियों और उनके दुष्प्रभावों को रोकने में मदद मिलेगी. साथ ही समाज में, लोगों में ऐसे भिन्न प्रकार के मनुष्यों के लिए स्पेस तैयार होगा. जैसे कई बार हम स्त्री, पुरुष को समान मानते हुए जब अपनी बात कहते हैं तो यहाँ भी मर्द प्रमुख हो जाता है. हम उसके नजरिए से देखने और तय करने लगते हैं. स्त्री और पुरुष एक नहीं हैं. वे भिन्न प्रकार के मनुष्य हैं जिन्हें नागरिक अधिकार चाहिए, किंतु फिर भी औरत का होना, अलग तरह के मनुष्य का होना संविधान में भी लैंगिक सहिष्णुता की माँग करता है जो सार्वभौम धर्मनिरपेक्षता के दायरे से भी व्यापक हैं. यही बात हम अन्य लिंगीय अस्मिताओं के लिए भी कह सकते हैं. पहचान और सामाजिक स्वीकार की दरकार उन्हें भी है जिसे हमें अब समझना चाहिए.      
     

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