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मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

कामदी (कॉमेडी): विसंगति के साथ औरतों की संगति

कॉमेडी या कामदी वस्तुतः विसंगति और बेतुकेपन का आनंद है. यह एक विधा, पद्धति या शैली है  जो वैविध्यपूर्ण परिवेश के क्रमवार प्रभाव में जन्म लेती है. अपने पूरे कलेवर में यह बहुआयामी और अनेक रेखीय है. एक ओर इसकी निश्चित साहित्यिक परम्परा है तो दूसरी ओर यह अन्य कला रूपों और विधाओं में व्यक्त करने की शैली के रूप में भी प्रयुक्त होती है. इसका मूल आधार हास्य है. हास्य के कारण ही यह विभिन्न भेदों, वर्गों, कोटियों जैसी असमानताओं को ध्वस्त कर देती है.
कामदी की आनंदधर्मी संरचना, तीव्र, मुक्त और स्वच्छंद अभिनय काम-प्रेम और कामुकता जैसे विषय को खुल कर पेश करती है. कामदीकार सामाजिक दबाव और भय से मुक्त होकर इच्छा, जरूरत, कामुक आनंद, उत्तेजना और कई बार फूहड़पन को परिहास का आनंद पैदा करने के लिए इस्तेमाल करता है. अभिनेता मज़ाक-मज़ाक में आंतरिक इच्छाओं, शारीरिक जरूरतों, असंतुष्ट कामनाओं को बिना किसी हिचक के इस तरह से प्रस्तुत करता है कि वे हास्य उत्पन्न करने लगते हैं. इससे निषेधों को दरकिनार करने का गुफ्त आनंद भी मिलता है. इस आनंद का एक कारण कामदी के पात्रों और स्वयं में समानता का बोध होना  है. प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विसंगति या कमी या अतिरेक का शिकार होता है. जब वह अपनी ही किसी विकृति या व्यवहार को अभिनीत होते देखता है तो उसे आनंद का अनुभव होता है. कई बार उसे इस बात की भी खुशी होती है कि वह कामदी में उपस्थित चरित्र के समान मूर्ख नहीं है.  
प्लेटो ने कामदी के लिए द्वेष या ईर्ष्या युक्त हर्ष को मूल तत्व माना है. ऐसा आनंद मनुष्य के अज्ञान से पैदा होता है. इस ज्ञानहीन, झूठे अभिमान में किसी का अहित या व्यक्तिगत आक्षेप न होकर हास्य पैदा करने का गुण होना चाहिए. कामदी मुख्य रूप में विरोध पर आधारित होती है. उदाहरणस्वरूप- व्यक्ति की कथनी और करनी का विरोध हास्य का कारण होता है. जबकि अरस्तू कामदी का मूल तत्व हास को मानते हैं आनंद को नहीं. इसमें मनुष्य की मूर्खताओं, दोषों और दुर्बलताओं का ऐसा चित्रण होता है कि इनकी कुरूपता नष्ट हो जाती है. इनसे घृणा का सृजन न होकर हास्य की उत्पत्ति होती है.
अरस्तू के बाद अज्ञात रचनाकार की ग्रीक रचना ‘Tractatus Coislinianus’ ने कामदी सिद्धांत को बेहतर ढंग से पेश किया. इसमें कहा गया कि कामदी केवल निंदा, आलोचना करने या मखौल बनाने की बजाय उपस्थित वास्तविकताओं की आलोचना के साथ उदात्त मूल्यों की स्थापना करती है. इसकी रचना में सभी परम्परागत रूढ़ विधाओं और मान्यताओं का उल्लघंन संभव है.सिसरो का मानना था कि कामदी का जन्म अनपेक्षित से होता है जबकि बर्गसां का कहना था कि कामदी का अस्तित्व मनुष्य के साथ ही है, उसके परे नहीं.
मनोविश्लेषक सिग्मंड फ्रायड परिहास को त्रुटिपूर्ण क्रिया या भाषाई फिसलन मानते हैं जिसके कारण अवचेतन की दमित भावनाएँ और विचार सामने आ जाते हैं. हमारे सपनों की तरह परिहास, हँसी-ठट्टे में भी अवचेतन के विचारों और निषेधों से जुड़ी गंभीर व जरूरी जानकारी मौजूद होती है. मज़ाक करते समय चेतन एवं अवचेतन के बीच के अवरोध बहुधा समाप्त हो जाते है. हास्य में कहीं से भी उछल कर सामने आ जाने की क्षमता होती है.1  मैरी डगलस के अनुसार हँसी या ठट्टा यों ही कहीं से टपक नहीं पड़ते वरन् मौजूद यथार्थ चेतना से उत्पन्न होते हैं. ये अपने अनुसार वास्तविकता को तोड़ने-मोड़ने का प्रयास भी करते हैं, "ऐसे परिहास देखे और स्वीकृत किए जाते हैं जो सामाजिक परिपाटी पर तात्कालिक ढंग से संकेतात्मक या प्रतीकात्मक नमूने प्रस्तुत करते हैं... मज़ाक में उन सभी सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है जिनमें वे उत्पन्न होते हैं. इसका आनंद लेने की एक सामाजिक शर्त है कि जिस सामाजिक समूह द्वारा यह ग्रहण किया जाता है उसमें भी व्यक्त किए गए को विकसित करने की औपचारिक विशेषता होनी चहिए. इस संबंध में एक प्रबल पक्ष को दूसरा चुनौती देता है. यदि किसी सामाजिक संरचना में परिहास है ही नहीं तो आगे भी उसकी अनुपस्थिति बनी रहेगी."2
अतः कॉमेडियन हास के द्वारा समाजिक नैतिकताओं का बहिष्कार करते हुए भी विश्वास जनित सुरक्षा महसूस करता है कारण कि उसकी अभिनय-शैली सामाजिकों में गहन अंतर्दृष्टि पैदा करती है. इस प्रकार वह व्यवस्था में मान्य और प्राप्त विकल्पों से बाहर अन्य विकल्पों का संधान करता है. ये विकल्प न तो परम, निरपेक्ष हैं और न ही शून्य हैं. ये केवल चुनाव हैं.
कामदी अंतर्विरोधी प्रभावों से युक्त दिखाई देती है. यह किसी भी प्रकार की सीमा और बंधन की विरोधी जान पड़ती हैं तो वहीं कई बार कामुक व्यवहारों के रूढ़ीवादी तौर-तरीकों को स्थापित करती नज़र आती है. बहुधा अभिनेता सामाजिक रूप से अस्वीकृत व्यवहारों और संबंधों का मज़ाक बनाते हुए परम्परागत जकड़बंदियों में ही उछलता-कूदता रह जाता है. नई दृष्टि, विकल्पों का प्रतिकार करता है. इसी प्रकार कामदी में देह, इच्छा, जेंडर, विवाह को लेकर सांस्कृतिक पिछड़ेपन के संकेत मिलते हैं. इसने औरतों के प्रति हीन, वस्तुवादी, पितृसत्ताक रवैये को भी जन्म दिया है. कामदी हास्य के आवरण में साधारणतः सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक यथार्थ, मानवीय विसंगतियों, आत्मिक पहचान के मुद्दों, मानसिक और व्यवहारिक उलझनों पर गंभीर वैकल्पिक नजरिया प्रस्तुत करती है. मुश्किल तब होती है जब उसका इस्तेमाल शत्रुता और बदले की भावना से किया जाता है या दूसरों को, उनकी पहचान का या अस्तित्व का मखौल बनाकर, नकारने की कोशिश की जाती है या तय की गई रूढ़ियों को अन्यों पर थोपने का प्रयास किया जाता है. अतः कामदी लैंगिक राजनीति को विभिन्न अंतर्विरोधी रूपों में प्रस्तुत करती है. वह निषेधों से मुक्ति, जरूरतों और इच्छाओँ को ऊँचे स्वरों में व्यक्त करने के साथ जेंडर की निर्धारित सामाजिक-संस्कृति को सुदृढ़ करती रही है.
कामदी में कामदीकार प्रत्येक वस्तु को अनुपातहीन चित्रित करता है. अजीब चेहरा, तेजी से बदलते भाव, बड़ा पेट, बेतरतीब कपड़े, ऊलजलूल व्यवहार, असाधारण मूर्खता, अतिशयोक्तिपूर्ण बातें, ऊटपटांग अभिनय इत्यादि द्वारा हास्य उत्पन्न किया जाता है. शरीर यहाँ एक माध्यम या टूल है जो अधिकाधिक दैहिक, विकृत, अनुपातहीन, अनुशासनहीन, असंतुलित, असंतुष्ठ, हठी और अनैतिक होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है. यानी कामदी का अर्थ शारीरिक गठन और आकर्षण की आदर्श अवधारणा से परे जाना है. ताकी हास्य बना रहे. इसमें पूर्ण सौंदर्य जैसी कोई चीज नहीं होती. यहाँ अपूर्णता तथा बेतुकेपन का जादू चलता है. सौंदर्य व शिष्टाचार की सीखाई गई अनुशासित परिपाटी के विलोम में कामदीकार हास्य का सृजन करता है. मसलन, इस समय के सबसे प्रसिद्ध कॉमेडी शो 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' की बात करें तो बिट्टू शर्मा (कपिल शर्मा), मिसेज शर्मा (सुमोना चक्रवर्ती), दादी (अली असगर), बुआ (उपासना सिंह), गुत्थी (सुनील ग्रोवर), पलक (कीकू शारदा), दुलारी (गौरव गेरा) आदि पात्रों का एकदूसरे की टाँग खींचते हुए लाउड अभिनय करना, बेढब हरकतों को और चेहरे के अनपेक्षित भावों को दिखाना, गुत्थी-पलक का और अब दुलारी-पलक का बार-बार विशेष किंतु निश्चित अंदाज में नाचना (गाना चाहे जो हो), दादी/डॉली शर्मा का शराब के नशे में धुत्त होकर ही मंच पर आना, बेहद कामुक हरकत करते हुए आए हुए मेहमानों को (शगुन की) चुम्मियाँ देना, गुत्थी-पलक, गुत्थी-दादी या दादी-पलक की आपसी मारपीट, उठापटक के दृश्य निश्चित रूप से सुंदरता और सभ्यता के दायरे से परे जाकर हास्य को पैदा करते हैं. यहाँ देह ही प्रधान है जिसकी विलक्षणता की, नियमहीन उत्सवधर्मिता की कोई सीमा नहीं है. अभिनेता शरीर की समस्त सीमाओं को लांघ कर संसार से संवाद स्थापित करता है.
स्त्रियों के संदर्भ में कामदी या तो उनकी लैंगिक पहचान से तय होती है या विवाह को लेकर उनकी उपलब्धता या उम्र से निर्धारित होती है. इस प्रकार कामदी में औरतों का ज्यादातर एकांगी व नकारात्मक प्रस्तुतीकरण होता है. जैसे बिट्टू शर्मा का बार-बार पत्नी को शादी के लिए अयोग्य साबित करना, उसके कद, चेहरे एवं होठों पर भद्दे कमेंट करते हुए उसके खानदान को हीन बताना या बुआ/पिंकी शर्मा का स्वयं को बाईस वर्षीय (जो वह कतई नहीं हैं) बताकर एकाधिक बार शादी की पेशकश करते हुए हास्य का पात्र बनाना उल्लेखनीय है. यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि महिलाएँ कामदी में निर्मात्री की तरह न आकर मातहत की तरह सामने आती हैं. आश्चर्य नहीं कि बेहतरीन अदाकारा टुनटुन (उमा देवी खत्री), मनोरमा, प्रीति गांगुली इत्यादि को न तो कभी किशोर कुमार की तरह मुख्य भूमिकाएँ मिली न ही महमूद की तरह कभी इनकी आमदनी उस दौर के नायक या नायिकाओं से ज्यादा रही. कामदी में विकल्पों के चुनाव और निर्माण की छूट के बावजूद सामाजिक-सांस्कृतिक स्टीरियोटाइप को लागू करना अन्ततः लिंग और वर्ग भेदी जड़ असमानताओं को समर्थन देना है. इसी कारण से कामदी में हमेशा से औरत की पहचान, इच्छा, आकांक्षा और अभिव्यक्ति की विविधता की कमी रही है.
स्त्रियों में सामान्यतः मौजूद तीखी समझ और धारदार अभिव्यक्ति (विट्) की क्षमता होती है. इसे सदैव दबाने या हतोत्साहित करने के प्रयास किए जाते रहे हैं. इसका सार्वजनिक प्रदर्शन औरतों की हीनता का प्रतीक माना जाता रहा है. कामदी में विटी औरतों को पर जबर्दस्त पलटवार किए जाते हैं. यथा- 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' की मिसेज शर्मा जब भी पति को माकूल जवाब देती है वह तत्क्षण उसे हीन बनाना शुरू कर देता है. बिट्टू शर्मा- "अच्छा पहले प्लास्टिक मुँह से निकाल कर बोल''. "देख तेरे ऊपर के होंठ नीचे के होंठ को कुचल ना दे". "बीवियाँ तो कमला, विमला टाइप की ही होती हैं". "अपने मुँह से पूरे घर की वैक्यूम क्लीनिंग कर लेती है". ऐसे व्यवहार की पहली और तुरंता प्रतिक्रिया यह होती है कि औरतें चुप हो जाती हैं. शून्य से घिर जाती हैं. बोलने के लिए कुछ रह नहीं जाता. अंत में जीत बड़बोले पुरुष की होती है.
छद्मवेश धारण कर अभिनय करने का चलन काफी पुराना है. जब औरतों को सार्वजनिक दायरे में आकर अभिनय करने की आजादी नहीं थी, उस समय पुरुष या अपेक्षाकृत छोटी कद-काठी के पुरुषों के द्वारा स्त्री चरित्र निभाए जाते थे. आज भी कामदी इस छद्मवेशी नाटकीयता से जुड़ी हुई है. यहाँ पुरुष स्त्री के और स्त्री पुरुष के वेश में नज़र आती है. 'कॉमेडी नाइट्स विद कपिल' में दादी (अली असगर), गुत्थी (सुनील ग्रोवर), पलक (कीकू शारदा), दुलारी (गौरव गेरा) आदि पात्र स्त्री छद्म में दिखाई देते हैं.
बनावटी वेशभूषा में तीव्र कामुक व्यवहार, उत्तेजना के अभिनय द्वारा सर्वग्राही रवैया व्यक्त किया जाता है. दृश्य छद्म के कारण कामदी में केवल औरतों के काम्य होने से अलग मर्दों के प्रति कामुकतापूर्ण, वस्तुवादी रवैया व्यक्त होता है. उदाहरणतः दादी (अली असगर) का सबको चुम्बन देना, पुरुष मेहमानों के प्रति तीव्र आकर्षण व्यक्त करना, गुत्थी (सुनील ग्रोवर) का बाकायदा दुल्हन के वेश में रनबीर कपूर से शादी की फ़रमाइश करना... कई विचारकों का यह भी मानना है कि ऐसे प्रदर्शन से विषमलैंगिकता और प्रजनन की एकतरफा नियमबद्धता से इतर समलैंगिक आकर्षण को हास्य के रूप में जगह मिल जाती है. इस कारण से आरम्भिक दिनों में पुरुषों के स्त्री छद्मवेश को सामाजिक पुंसवादी व्यवस्था के लिए हानिकारक माना गया. पितृसत्ता बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि औरत-मर्द की विभेद जनित असमानता भी बनी रहे.
कामदी में कृत्रिम आवरण धारण किए हुए अभिनेता और अभिनेत्री कई अस्मिताओं में दौड़ लगाकर अन्ततः अपने 'स्व' में यानी पुरुष या स्त्री होने में लौट आते हैं. यही कारण है कि दादी, गुत्थी, पलक आदि के संवादों में उनके पुरुष होने के संवाद बाज़ाब्ता अकबकाए से आ आते हैं. इस तरह सार्वजनिक मंच पर भौंडी साज-सज्जा और अतिरंजित हाव-भाव के द्वारा औरतों की खिल्ली उड़ाकर स्त्री बने पुरुष अन्ततः मँजे हुए अभिनेता और आत्मविश्वासी मर्द के तौर पर सामने आते हैं. औरतें मूर्ख और चंचल नज़र आती हैं. पुंस-प्रभुत्व बना रहता है. मंच पर अधिकांश औरतों (छद्मवेशी सहित) की मौजूदगी के बाद भी पुरुषत्व की जीत सुनिश्चित होती है.
कामदी में भाषा का लचीला और चुटीलापन महत्वपूर्ण होता है. भाषा की कलाबाजी करता कामदीकार महत्वहीन विषय को आवश्यक बनाकर और महत्वपूर्ण को टरकाकर हास्य की रचना करता है. कामदी में भाषा, उसकी अवधारणा और समझ की सभी तार्किक सीमाएँ टूट जाती हैं. अनेकार्थता की संभावना कई गुना बढ़ जाती है. कई बार पंच लाइन के रूप में संदर्भहीन, बेतुकी बातें बोली जाती है. जैसे- कपिल शर्मा का बार-बार 'बाबा जी का ठुल्लू' या गुत्थी का 'जूस मी' कहना. ऐसी बातों की सीमाहीन अनेकार्थता में कई बार अतिरिक्त फूहड़पन की झलक भी मिलती है.
कामदी की संरचना और उसमें औरतों की उपस्थिति, स्वतंत्रता को लेकर सुसैन कार्लसन का कहना है, "कामदी के नाट्य रूपों में स्त्रियों के समूह पर इसकी दो विशेषताएँ लागू होती हैं, कि कामदी में औरतें मूलतः विलोम रचती हैं और सामान्यतः सुखद अंत को अंजाम देती है. कामदी की संरचना में इन दो पहलुओं को देखकर औरतों की सीमाओं को समझा जा सकता है. कामदी में औरतों को उनकी बुद्धिमत्ता, स्वतंत्रता और शक्ति के साथ स्वीकार किया जाता है क्योंकि इस विधा में इन गुणों के विरुद्ध आंतरिक सुरक्षा तंत्र हमेशा सक्रिय रहता है."3 सच यह है कि सामाजिक व्यवस्था में औरत के विनोदी होने, हँसोड़ होने के हक को छीन लिया गया है. स्त्री का जोर-जोर से हँसना, तेज आवाज़ करना, खुशी या आनंद में, चुहल करते हुए लोटपोट होना, शरीर का ध्यान न रखना, नियंत्रित न रह पाना उसे तथाकथित सामाजिक रूपों, शांत, सभ्य, सुसंस्कृत, आज्ञाकारी और पालतू होने के, खिलाफ खड़ा करता है. ऐसे में पितृसत्ताक समाज में उसके सौंदर्य और सद्व्यवहार की रोमानी फैंटेसी में जीनेवालों को तेज धक्का लगता है. अभिनेत्री के तौर पर भी उसके हास्य की क्षमता को स्वीकार न कर विधा की तारीफ में कसीदे पढ़े जाते हैं. अतः सीमित भूमिकाएँ और उस भी स्त्री-विनोद की नामसझी के कारण उसकी सर्जनात्मक प्रतिभा, सामाजिक स्पेस एवं आज़ादी बाधित होती है. इतना अवश्य है कि औरतों ने भी आगे आकर इस विधा में अपनी जगह बनानी शुरू की है. उन्हें स्वीकार भी किया जा रहा है. जरूरत है कि सचेत होकर औरतों के प्रति पूर्वाग्रहों, भद्दे संवादों को छोड़कर सृजनात्मक रूप में उनको पूरी विविधता के साथ स्वीकार किया जाय. इससे विचारधारात्मक तौर पर पुंसवाद के आदर्शवादी छद्म को चुनौती दी जा सकेगी. 

1. Stott, Andrew, 1969, Comedy, Routledge, NewYork, P.11.
2.    Douglas,Mary, 1975, Implicit Meanings: Essays in Anthropology, Routledge and Kegan Paul, London, P.98.
3.   Carlson, Susan, 1991, Women and Comedy: Rewriting the British Theatrical Tradition, University of Michigan Press, Ann Arbor, P.17

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