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शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

बलात्कार बनाम स्त्री:दशा और दिशा

गत रविवार राजधानी दिल्ली में चलती बस में रात 9 से 10 के बीच 23 वर्षीय मेडिकल की छात्रा से सामूहिक बलात्कार किया गया. उसे बचाने के लिए तत्पर उसके पुरुष मित्र के सिर पर लोहे की रॉड से वार किया गया. बलात्कार के बाद उन्हें मारपीट कर बिना कपडों के चलती बस से बाहर फेंक दिया गया. इस आलेख के लिखे जाने तक युवती की हालत गंभीर बनी हुई है. फटी आंतों, सिर पर 23 टाँकों और क्षतिग्रस्त आंतरिक अंगों के साथ वह बड़े साहस से जिंदगी की जंग मौत से लड़ रही है. युवक फिलहाल प्राथमिक उपचार के बाद सुरक्षित है. पुलिस की सक्रियता के कारण छः में से चार अपराधी 24घंटे के भीतर पकड़े जा चुके हैं. अन्य की खोज जारी है. उच्च न्यायालय ने भी स्वयं संज्ञान लेते हुए पीड़ित और उसके साथी को सरकार द्वारा पूरी चिकित्सकीय सहायता दिए जाने का नोटिस जारी किया है. जन-आंदोलनों और विद्रोहों का माहौल गर्म है. सभी इस हिंसक वारदात के खिलाफ एकजुट हैं.
औरतों के विरुद्ध इस तरह की घटनाएँ अंततः यह साबित करती हैं कि परिवार और समाज में आज भी उसका दर्जा दोयम है. वह मातहत है. लगातार बढ़ती बलात्कार की घटनाओं ने बार-बार और भी वहशीपन के साथ पिछली समस्त नारकीयता को पार कर दिया है. स्त्री के उत्पीड़न का रूप ज्यादा भयावह हो गया है. वह जितनी शिक्षित और स्वावलंबी होने की कोशिश करती है, उतने ही हमले झेलती है. उसकी दयनीयता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पीड़ित होने के बावजूद उसे ही अपराधी घोषित कर पितृसत्ताक उत्पीड़क अपनी पीठ ठोकते हुए नज़रे बचाकर निकल जाते हैं. उसे हमेशा बेवजह की धेरेबंदी में रखने के लिए नैतिकता और पवित्रता के समक्ष जवाबदेह बना दिया जाता है. उसने कैसे कपड़े पहने थे? वह कहाँ थी? उस वक्त  घड़ी की सूई ने किस अंक पर डेरा जमा रखा था? जबकि सचाई यह है कि ज्ञान, महत्वाकांक्षा और आत्मनिर्भरता के लिए तेजी से सक्रिय युवतियों के लिए ये परम्परागत नियम व मानक कोई मूल्य नहीं रखते. पर्देदारी और पुरानी जकड़बंदी में शिक्षा, विकास तथा स्वावलंबन संभव नहीं है.
इस वाकये ने एक ओर लड़कियों की पारिवारिक-सामाजिक स्थिति व सामान्य मानसिकता को कठघरे में खड़ा किया है तो दूसरी ओर इन्हीं परिवारों में पलनेवाले ऐसे पुरुषों की ओर भी ध्यान खींचा है जो स्त्री के प्रति भीषण असम्मान-बोध और नफ़रत से भरे होते हैं. इनका बचपन सामान्यतया बेहद असुरक्षित और बीहड़ होता है. शराबी पिता या अन्य मर्दों की हिंसा झेलती मूक माँ-बहनों को देखते हुए ये बड़े होते हैं. उन्हें औरत की इच्छा, सम्मान का कोई अंदाज ही नहीं होता. वे अपने समस्त दुखों, अभावों, असफलताओं और कष्टों का समाधान औरत की देह से प्रतिशोध लेकर करते है. ऐसी प्रवृत्ति दो तरह के वर्गों में साफ झलकती है, पहले, अर्द्धशिक्षित, बेरोजगार वे लोग जो भीषण गरीबी की मार झेलते हुए रोजी-रोटी के लिए तेजी से स्थान परिवर्तित करते हैं. इनका मूलतः कोई स्थायी पता-ठिकाना नहीं होता. ऐसे लोगों को वारदात के बाद पहचान पाना और गिरफ्त में लेना बहुत मुश्किल होता है. ये भी तत्काल गुम हो जाने की अपनी शक्ति से वाकिफ होते हैं. असंतुष्ट और परेशानहाल यह तबका प्रेम नहीं चाहता बल्कि दूसरों (जो उससे कमजोर हैं, मसलन-महिलाएँ, बच्चे.) को तकलीफ पहुँचाना, कष्ट देना चाहता है. इससे उन्हें विकृत संतोष मिलता है. दूसरा, नव धनाढ्य वर्ग. यह वर्ग देखने में तो आधुनिक और नई सुविधा-सम्पन्नता से लैस दिखता है किंतु कायदे से सामंती संरचना के बाहर नहीं आना चाहता. ऐसे घरों में औरतों को सुरक्षित, सीमित दायरे में ही स्वतंत्रता हासिल होती है. इनकी नाक और मूँछों की परिधि से बाहर स्त्री स्वायत्ता जैसी किसी चीज का वजूद नहीं होता. त्वरित धन-प्राप्ति, अत्यधिक उपभोग की लालसा के कारण सामंती-पितृसत्ताक दायरे में इनका तेजी से अपराधीकरण हुआ है.
'पीड़ित को ज़िंदा लाश मानना', 'एक हादसे के बाद उसके व उसके परिवार के सम्मान की इतिश्री मान लेना', 'उसके द्वारा जीवन भर हिंसा और बलात्कार के दाग व दंश को झेले जाने की अनिवार्यताजैसी मानसिकता अंततः पीड़ित को सामाजिक रूप से अकेला बना देती है. उसे विश्वास दिलाना होगा कि वह सक्षम हैकार्य और व्यक्तित्व ही उसके सम्मान का कारक बनेंगे. औरत की इज्ज़त का आधार उसकी देह नहीं हो सकती. ऐसी सोच के कारण ही हर ऐरा-गैरा उसे उसकी औकात दिखा देने की बात कहता है. और हमारे तथाकथित नेतागण सहानुभूति के नाम पर अंततः उसे उसके दुखद भविष्य की दुहाई देते दिखते हैं.
फिल्मोंगानोंविज्ञापनों, पोर्नोग्राफी के अतिशय प्रचार और कई बार समाचार चैनलों में स्त्री के प्रति अधिकांशतः वस्तुवादी दृष्टिकोण ने उसके प्रति बर्बर हिंसा को जायज़ बनाया है. फिल्मों और टी.वी कार्यक्रमों में स्त्री-पुरुष के एकायामी प्रस्तुतीकरण से बचा जाना चाहिए.  पापुलर मीडिया द्वारा चरित्रों के निर्माण में भीषण घालमेल  किया जाता है. औरत की बुरी छवि निर्मित कर उस पर हुए अत्याचार को वैध नहीं बनाया जा सकता. वैसे ही आक्रामक, गालियाँ बकनेवाले पुरुष को नायक बनाया जाना गलत सामाजिक संदेश देता है. वहीं समाचार चैनलों में बलात्कार की त्रासदी को सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत करना बेहद संवेदनशील विषय को बाजारू बना देना है. अतः आवश्यक है कि ऐसे हादसों की, न्यायिक पहलकदमी की क्रमवार रपट से जनता को अवगत कराया जाए. ताकि समाज में यह संदेश पहुँचे कि ऐसे कुकृत्यों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. संचार माध्यमों को औरतों की देह व यौनिकता के सकारात्मक प्रस्तुतियों पर ध्यान देना होगा. स्त्री-सुरक्षा, जागरूकता को फिलवक्त मुख्य मुद्दा बनाना होगा.
पुलिसिया प्रशासन और न्यायिक प्रक्रिया में हावी पुंसवादी मानसिकता से निजाद पाना जरूरी है. आलम यह है कि जितने बलात्कार होते हैं उतने दर्ज नहीं होते. जितने दर्ज भी होते हैं वो पहले से मौजूद इकतरफा रवैये, धीमी न्यायिक प्रक्रिया और शोषित के प्रति असहिष्णु व्यवहार की भेंट चढ़ जाते हैं. महिला पुलिसकर्मियों की कमी भी है. इसलिए पुलिसवालों का लैंगिक संवेदनशीलता के नजरिए से पूरा सुधार किया जाना चाहिए. प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. गवाहों की विडियो रिकार्डिंग के बाद जल्द चार्जशीट दाखिल की जानी चाहिए. ऐसे मामलों की समय-सीमा तय की जानी चाहिए ताकि न्याय शीघ्रातिशीघ्र मिल सके. पीड़ित की दुरावस्था को देखते हुए कड़े दंड का प्रावधान किया जाना चाहिए. हालत इतनी बुरी हो गई है कि इन अपराधियों के मनोबल को गिराने के लिए मृत्यु-दंड का प्रावधान उचित लगता है, जिससे कि मासूम बच्चों और लड़कियों पर हाथ डालने से पहले वे भयभीत हो जाएँ.
इन अपराधों के खिलाफ कठोर रूख साथ ही सुरक्षा व सूचना के लिए आधुनिक यंत्रों का प्रयोग, सिविल पुलिसिंग, हेल्पलाइन, वीमेन सेल, ताकतवर, अधिकार-सम्पन्न महिला पुलिस, सरकार-विभिन्न राज्यों की पुलिस और स्थानीय संस्थाओं में सामंजस्य , रेप-क्राइसिस सेंटर की स्थापना और कानूनों के प्रति जागरूकता को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए. सबसे जरूरी बिंदु यह कि समाज के नाम पर केवल वर्चुअल समाज या दीवारों से अँटा समाज न बनाकर खुलेपन, सहयोग और संवाद पर ध्यान दिया जाना चाहिए. अपने पास-पड़ोस की जानकारी रखी जानी चाहिए. औरतों की सुविधा के लिए उनके निजी पार्क, कॉफी हाउस, घुमने-फिरने की जगहें, यायायात की विशेष सुविधा होनी चाहिए.
युवतियों को स्वयं से, अपनी देह और लौंगिकता से परिचय के साथ आत्म-रक्षा के उपायों से लैस होना होगा. उन्हें समझना होगा कि छेड़छाड़, बलात्कार, हिंसा उनके मानवाधिकारों का हनन है. अब तक चले आए चुप्पी के षड्यंत्र को उन्हें तोड़ना होगा. अपनी आपबीती सामने आकर कहनी होगी. आत्म-भय, समाज-भय से लड़ना होगा. खुद से प्रेम करना होगा. तभी वे भय-मुक्त हो, वर्जना-मुक्त हो आगे बढ़ पाएँगी, अन्यों से सहज हो प्रेम कर सकेंगी. सम्मान अर्जित कर सकेंगी.
(मुक्ति के स्वर पत्रिका में प्रकाशित)    

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