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रविवार, 29 जुलाई 2012


                      स्वच्छता  और स्त्री
 
     'डेटॉल' साबुन का विज्ञापन 'बी हंड्रेड परसेंट स्योर' के नाम पर किटाणुओं के खात्मे की और मानसिक विकास की गारंटी देता हैं. 'डव' 'सेवेन डेज़ चैलेंज' गोरी और कोमल त्वचा प्रदान करने, 'वीवेल लक्ज़री सॉफ्ट' नाज़ुक, आकर्षक बनाने, 'एडवांस लाइफब्वाय' दस तरह की बैक्टीरिया को समाप्त करने का दावा करता है. ये विज्ञापन स्वच्छता को छोड़कर बाकी सब कुछ मिथ्या प्रचार के तहत करते हैं. साबुन में ऐसा कोई तत्व नहीं होता जो व्यक्ति को स्वस्थ बना दे या मानसिक विकास प्रदान करें या किटाणुओं को मार गिराए.
     स्वच्छता स्वास्थ्य और सुंदरता से जुड़ा मसला है. स्वच्छता का मतलब साबुन, पाउडर, क्रीम, पर्फ्यूम या डियो नहीं होता है. इसका संबंध दैनिक साफ-सफाई और रख-रखाव से है. खुद की केयर से है. इसके लिए नियमित स्नान, स्वच्छ धुले कपड़े व खुद की उचित देखभाल जरूरी है. औरतों का स्वच्छ रहना ज्यादा आवश्यक है. क्योंकि उन पर पूरे घर का स्वास्थ्य निर्भर करता है. रसोई, कपड़े, बर्तन के साथ सदस्यों की हारी-बीमारी उसी के जिम्मे होती है.
     यह भी माना जाता रहा है कि औरतें मर्दों से ज्यादा स्वच्छ होती हैं. जबकी सचाई यह है कि इस स्वच्छता का संबंध स्त्री से न होकर उसके घर, परिवेश और स्थान से है. वह 'अन्य' में इस कदर उलझी होती है कि खुद के लिए उसके पास न समझ बाकी होती है, न समय न श्रम. वह घर के समस्त लोगों की सुविधा, भोजन, स्वास्थ्य, साफ-सफाई में ही व्यस्त रहती है. दिनभर के कामों में थकी, पसीने, दुर्गंध में लथपथ स्त्री स्वच्छ न होने के कारण हमेशा पति या सास की झिड़की खाती दिखती है. काम के पश्चात उन्हीं गंदे कपड़ों में वह खाना खा लेती है, आराम भी कर लेती है. अत्यधिक कामों के बोझ तले दबी औरत स्वयं पर अतिरिक्त समय खर्च नहीं करना चाहती. लड़की-लड़के के बीच असमानता सबसे पहले इसी घरेलू परिवेश से शुरु होती है जहाँ घर की औरतों, बच्चियों को शरीर और स्वास्थ्य के आधारभूत साधन उपलब्ध नहीं होते.
     घर की बड़ी-बूढ़ी (दादी,नानी जैसी) स्त्रियों में भी स्वच्छता के नाम पर एकाध बार नहा लेने को ही बहुत मान लिया जाता था. खुद को समय देना, सँवारना, स्वच्छ रखने की ओर कभी उनका ध्यान ही नहीं गया. इसका एक कारण यह भी था कि पहले स्वच्छता व खुद के रख-रखाव को औरत के ऐश्वर्य तथा नखरों से जोड़ कर देखा जाता रहा. इसे उसकी सामाजिक स्थिति का पर्याय बना दिया गया. परिणाम यह हुआ कि गरीब, श्रमशील स्त्रियों को जितनी अधिक सफाई की ज़रूरत थी वे उतनी ज्यादा उससे दूर रहने लगी. अत्यधिक शारीरिक श्रम करने के कारण वे गंदी तो खूब होती थी किन्तु सफाई की उपेक्षा करती थी. स्वच्छता को उच्चवर्गीय या उच्चवर्णीय विलासिता मानने के कारण इसकी दैनंदिन अनिवार्यता और वास्तविक महत्व पर पर्दा पड़ गया. खुद के प्रति अनदेखी का यही भाव पुनः बाद की पीढ़ी में भी विस्तार पाता है. नई पीढ़ी भी स्वच्छता का अर्थ नहीं जानती. तरह-तरह के साबुन, पाउडर, क्रीम के प्रयोग में व्यस्त रहती है. सफाई के नाम पर ब्यूटीशियन को प्रति माह हजारों रुपये यों ही दे आती है. अब भी स्वच्छता का अर्थ युवतियों में विलास के रूप में ही शेष रह गया है. एक ओर जहाँ वे सामान्य स्वास्थ्य विज्ञान से अपरिचित हैं वहीं दूसरी ओर ब्यूटीशियन, फिलहाल, काम-देवियों को गढ़ने के कारखाने चला रहीं हैं.
     माँ, बुआ, चाची, मौसी, मामी की जानकारीहीनता का भयानक दुष्परिणाम युवतियाँ उठाती हैं. वे शरीर के आंतरिक अंगों की सफाई के महत्व से अवगत नहीं हो पातीं. सामान्यतः परिवारों में लड़कियों की माहवारी को लेकर अनेक टैबू मौजूद हैं. वे कभी समझ ही नहीं पातीं कि मासिक धर्म देह की स्वाभाविक क्रिया है, कोई बीमारी नही. यह उनके लिए लज्जाजनक गतिविधि है जिसे छिपाया जाना चाहिए. माहवारी के कुछ दिन उन्हें अपवित्र मान लिया जाता है. भगवान, प्रसाद, अचार छूने की मनाही होती है. कई घरों में वे कोई भी वस्तु इच्छा या जरूरत के अनुसार छू भी नहीं पातीं. उन्हें बिस्तर पर सोने नहीं दिया जाता. अलग से चटाई या दरी दे दी जाती है. हर महीने इसी उपक्रम से गुजरती लड़की में खुद के गंदे, अशौच होने का बोध गहरा हो जाता है. पूरे घर में उपेक्षित लड़की स्वयं की कहीं ज्यादा उपेक्षा करती है. जानती है कि स्वच्छ रह कर भी वह अपवित्र ही मानी जाएगी. इसलिए, इन दिनों जबकि उसे अधिक स्वच्छ रहने की आवश्यकता है, वह खुद की अवहेलना करती दिखती है. उसका यही रवैया अंतर्वस्त्रों की सफाई को लेकर भी है. देह और वस्त्रों के रख-रखाव पर ध्यान न देने के कारण संक्रमण के खतरे बढ़ जाते हैं.
     गर्मी और उमस भरे दिनों में बार-बार नहाकर स्वच्छ रहने की बजाए पर्फ्यूम व डियो का इस्तेमाल बढ़ा है. इससे सुगंध और कृत्रिम दुर्गंध का घातक सम्मिश्रण तैयार होता है. जो आसपास वालों के लिए खासी दिक्कत पैदा करता है. इसका दूरगामी प्रभाव यह होता है कि शरीर की स्वाभाविक गंध स्थायी रूप से दुर्गंध में तब्दील हो जाती है.
     फेक प्रायोजित विज्ञापनों ने गोरा दिखने की कवायद को स्वच्छ एवं आकर्षक दिखने से जोड़ दिया है. इस भोड़ी प्रक्रिया में चेहरा ही नहीं शरीर के आंतरिक अंगों को भी शामिल कर लिया गया है. चमकाने की इस होड़ में औरत और स्वच्छता की समस्या हाशिए पर चली गई है. वह 'माल' में बदल गई है. गौरतलब है कि ऐसे विज्ञापनों का विरोध भी होता रहा है किंतु नतीजा वही ढाक के तीन पात...
     इसका एक हास्यास्पद पहलू रोमविहीन होना भी है. कई बार अनावश्यक रूप से बढ़े रोम संवेदनशील त्वचा के लिए परेशानी का सबब होते हैं. इनसे छुटकारा पा लेना ही उचित होता है. लेकिन हल्के या सामान्य रोम युक्त स्त्री के लिए ऐसी कष्टपूर्ण प्रक्रिया से गुजरना कतई जरूरी नही है. विज्ञापनों में रोमविहीनता को स्वच्छता और सुंदरता का मानक बनाया जा रहा है. आलम यह है कि रोम युक्त युवती स्वच्छ होकर भी स्वयं में आत्मविश्वास की कमी पाती है. मौका मिलते ही इनसे निजात पा लेती है. उसकी सहायता के लिए बाज़ार में अनेकानेक ब्रांड मौजूद हैं, जो चुटकी बजाते ही उसे कोमल, चिकना और सुंदर बना देते हैं.
     ध्यान दें तो पता चलता है कि गोरापन व रोमविहीन होने की दौड़, स्त्री पर बाज़ार का गैर-जरूरी दबाव बनाती है. स्वच्छता की यह फेक विचारधारा स्त्री-नियंत्रण पर आधारित है. ये विज्ञापन कहीं न कहीं औरत की देह व पहचान की अपार संभावनाओं पर बात करते हुए उसकी अद्भुत विशेषता को महत्व देते हैं. या यों कह लें कि अंततः औरत को जैविक रूप से मर्दों से कमतर साबित करते हैं. उसके कारपोरेट सामाजिक नियमन को आवश्यक बनाते है.
     स्वच्छता मानव जाति के सामाजीकरण, सभ्यता और विकास की सीढ़ी है. रोजमर्रा की भूमिका निभाने के लिए, स्वस्थ व आनंद से रहने के लिए स्वच्छ रहना बेहद जरूरी है. स्वच्छता को स्वास्थ्य तथा प्राकृतिक सौंदर्य से काटकर बाज़ार से जोड़ना खतरनाक है. युवती द्वारा सफाई के साथ स्वास्थ्य-विज्ञान की अनदेखी परिवार और अंततः समाज को भी प्रभावित करती है. सफाई का अर्थ घर की धूल झाड़ना नहीं है. स्वयं की देख-रेख करना है. खुद को समय देना है. खुद से प्रेम करना है. सफाई विलास नहीं जीवन और शरीर की आधारभूत आवश्यकता है. खुद से कटी स्त्री सारी जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी कभी स्वयं को सुख नहीं दे पाती, संतुष्ट नहीं हो पाती है. अतः स्वच्छता के वैज्ञानिक जरूरत को समझते हुए जागरुकता फैलाना आवश्यक है.     
                 इस विषय को व्यक्तिगत, नैतिक-अनैतिक के दायरे से  
              बाहर निकाला जाना चाहिए. इसके लिए जरूरी है कि स्त्री         
             स्वच्छता और स्वास्थ्य पर बेझिझक खुलकर बोले. बिना किसी    
             रोकटोक, लज्जा व भय के साझा करे. आपत्ति और असहमति दर्ज 
             करने के साथ अपनी सचाई व्यक्त करे. तभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर  
            औरत का पक्ष सामने आएगा. साथ ही अफवाहों, झूठे विज्ञापनों के   
            विरुद्ध मजबूत आधार तैयार होगा. वे स्वच्छता के साथ 
            स्वास्थ्य,सुविधा, सुख, सहजता को ध्यान में रखेंगी तभी सुंदर 
            दिखेंगी.   
            (साप्ताहिक अख़बार 'युवाशक्ति ' में आज छपा मेरा आलेख.)

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