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शनिवार, 7 जुलाई 2012

खोखली आत्म-मुग्धता की शिकार युवतियां


      आधुनिक शिक्षित युवतियों में व्यवहारगत अंतर्विरोध और आत्म-मुग्धता की मनोदशा में इज़ाफा हुआ हैं. वे सामान्यतः रूढ़िबद्ध, जड़बुद्धि और असंतुलित व्यवहार की आदी हो रही हैं. यहाँ गम्भीर प्रश्न यह उठता है कि आधुनिक शैक्षिक व्यवस्था में पली-बढ़ी ये लड़कियाँ क्यों पीछे की ओर जा रही हैं या यों कह लें कि विकल्पहीन, एकांगी व्यक्तित्व से सम्पन्न हो रही हैं? क्या वे आज्ञाकारी समूह में बदल रही हैं? क्या उनमें सीमित क्रियाकलापों के प्रति सहज आकर्षण पैदा हो रहा है? यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि सभी नहीं किंतु ऐसी युवतियों की बड़ी जमात है. वे अपनी उत्तेजित करनेवाली स्वतःजात इच्छाओं को पूर्ण करने की बजाए नियंत्रित और नियमित क्रियाकलापों में लगी रहती है. इन  युवतियों में स्व-चेतना और समझ का अभाव भी मिलता है. व्यक्तित्व की अस्थिरता व चेतनाहीनता के कारण वह आधुनिक नागरिक के विशेषाधिकार से वंचित रह जाती है. वे अपना दृष्टिकोण निर्मित करने में असफल रहती हैं और सभी किस्म के  आंदोलनों और  जागरुकता अभियानों से दूर रहती हैं. ज्ञान-विज्ञान के आविष्कारों ने स्त्री को अपना 'स्पेस' दिया है. समाज भी पहले की अपेक्षा उदार हुआ है. परन्तु वह इस खुलेपन का लाभ नहीं उठा पा रही. वह बिल्कुल ही चुनाव नहीं करती या अपेक्षाकृत कम कर पाती है. बाद में उत्पीड़ित महसूस करती है. मित्रों को चुनाव कर लेने और मन-भर जी लेने का सुझाव देते हुए खुद पर अफसोस करती दिखती है.आज की युवती अपनी विशिष्टता सिद्ध करना चाहती है. व्यक्ति होना चाहती है. आज भी इसके लिए उसे सबसे आसान ज़रिया विवाह करना ही लगता है. यह उसके लिए बेहतरीन कैरियर विकल्प है. इससे उसे एक झटके में आनंद, प्रेम, सम्मान, सुरक्षा, स्थायित्व, काम-सुख एवं सामाजिक प्रतिष्ठा मिल जाती है. पति के रूप में वह अच्छे मालिक और संरक्षक की खोज में रहती है. बिना कुछ किए पति के साथ व सहयोग के द्वारा स्वयं को स्थापित करना चाहती है. इस कारण वह पति के इच्छानुरूप स्वयं को प्रस्तुत करने में लगी रहती है. उसकी स्वायत्तता का मतलब समर्पण होता है. ऐसे में उसकी निष्क्रियता बनी रह जाती है. फलतः उसकी चेतना का क्षय होता है.
     गौरतलब है कि स्त्री के परम्परागत कार्य उसे व्यक्तित्व-सम्पन्न नहीं बनाते. वह सबकुछ करते हुए भी कुछ नहीं की स्थिति में होती है. उसके कार्य, योजना, लक्ष्य न तो उसे व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं, न ही उसे मुक्त करते हैं. स्त्री, वस्तुतः सैंद्धान्तिक आदर्शों की यूटोपिया और व्यवहारिक असमानता के यथार्थ में उलझकर टूट जाती है. माँ के रूप में उसकी लिंगीय श्रेष्ठता को स्वीकार किया जाता है किन्तु व्यवहार में उसके पास आत्मनिर्भरता और व्यक्तित्व दोनों का अभाव है. इस कारण कई बार वह अनवरत कठोर साधना नही कर पाती है. आत्म-सम्मोहन का भ्रम उसके बड़े उद्देश्यों को सीमित कर देता है. वह जल्दी लक्ष्यच्युत हो जाती है.
     स्त्री के हाव-भाव, पहनावा, श्रृंगार सभी उसके व्यक्तित्व का आवश्यक अंग हैं. यहाँ भी उसका नज़रिया महत्वपूर्ण है. बचपन से दी गई शिक्षा के अनुरूप वह स्वयं को दूसरों की नज़र से देखती है. देह उसके अस्तित्व से अलग अन्य तक पहुँचने का माध्यम भर रह जाती है. उसकी सुन्दरता, साज-सज्जा, गहने उसे प्रतिकूल दिशा में ठेल रहे हैं, कारण कि उसका नज़रिया अब भी पुराना है. उसके श्रृंगार में मातहत भाव ज्यादा है. सराहना पाते ही वह समर्पित हो जाती है. कृत्रिम रूपों और भोंडे प्रदर्शन में आनंद लेने लगती है.
     स्वयं को दर्शनीय दृश्य बनाकर पेश करती है. हमेशा सचेत होकर व्यवहार करती है, मानो कोई कैमरा उसका हरदम पीछा कर रहा हो. स्वयं को बेहद आकर्षक व प्रेजेन्टेबल बनाकर रखती है. शरीर का कामुक प्रस्तुतीकरण, बेवज़ह की चपलता, आँखों की चंचलता, बेवकूफी भरी बातों में अनावश्यक खिलखिलाहट ठूँसकर आमंत्रण की खुशबू बिखेरती रहती है. इनकी द्विअर्थी देह-भाषा, त्वरित प्रतिक्रिया, सतही वाचालता आकर्षित तो करती है, लेकिन इसमें कोई स्वस्थ भाव नहीं होता. यह खोखली होती है इसलिए जल्दी विकर्षित भी करती है. आत्म-मुग्धता के आलम में उसका संबंध वास्तविक संसार से टूट जाता है. वह केवल खुद को, अपनी देह को केन्द्र में रखकर व्यवहार करती है. इससे उसकी उपस्थिति हास्यास्पद हो जाती है. स्त्रियों के बीच की मित्रता, सह-अनुभूति और बतरस का अपना ही आनंद है. वे आपस में समस्त छोटी-बड़ी, ज़रूरी-गैरज़रूरी बातों का साझा करती हैं. यहाँ भी उनकी व्यक्तित्वहीनता के दर्शन आसानी से हो जाते है. बोलने के क्रम में वह अंदरूनी श्रृंखलाओं को तोड़ नही पा रही हैं. उनके उथले कम्युनिकेशन ने, स्त्री के विरुद्ध, पितृसत्ताक पुंसवाद को कहीं अधिक सुदृढ़ बनाया है. सामान्यतः वे आपसी साझेदारी बेहद ईमानदार हुआ करती हैं. यह ईमानदारी क्रमशः घटी है. सखियाँ सूचनाओं, समस्याओं, निजी जानकारियों को आपस में बाँटती अवश्य हैं, लेकिन इन्हीं बातों के साथ अपनी-अपनी व्याख्याएँ चिपकाकर अन्य लोगों तक फैला देती हैं. इस द्वितीय संप्रेषण के बाद उपजे दुष्प्रभाव को फिर आरोप-प्रत्यारोप बनाकर संबंधों का गुड़-गोबर कर देती हैं. वे बड़ी ही गैरजिम्मेदारी से शब्दों की शक्ति और संप्रेषण के गाम्भीर्य से खेलती हैं. और नकारात्मक स्थितियों में पड़ने पर नकली मासूमियत लपेट कर कहती हैं, मैंने ऐसा कब कहा था या मेरे कहने का यह मतलब नहीं था या मैंने इतना सोचकर नहीं कहा..                
     भाषा और भावों का वैविध्य, उसका स्त्री-सुलभ बेबाक प्रयोग औरत की इयत्ता को शक्तिशाली बनाता है. अल्ट्रामॉडर्निज़्म के नाम पर पुंसवादी भाषा का सामंती, एकसार व अराजक प्रयोग उसे ठस्स, गतिहीन और पंगु बनाता है. वह सामान्यतः द्वन्द्व-भाव या प्रतिशोध को लेकर जीती है. सभी से रोषपूर्ण व्यवहार करती है. मानो सब उसके दुश्मन हैं जिनसे उसे अपना हिसाब बराबर करके ही छोड़ना है. व्यक्तित्व की कुंठा उसके व्यवहार को असीमित तिक्तता से भर देती है. कई बार वह दूसरों का मखौल बनाकर अपनी उत्कृष्टता सिद्ध करने में लगी रहती है. ऐसे मैं उसका रवैया आत्मविश्वास से इतर अनुदार एवं असहिष्णु होता है. अपमान द्वारा घटिया हास्य उत्पन्न करना व्यक्तिगत ही नहीं सामाजिक पिछड़ापन भी है. इससे संवादहीनता की स्थिति बनी रह जाती है. ऐसी असामाजिकता खतरनाक होती है. उसकी सामाजिक समझ, सरोकार, नज़रिया शून्य होता है. बिना किसी ज्ञान और सचेतना के वह रिक्त, हताश, अशांत, अतिसंवेदनशील तथा चिड़चिड़ी बन जाती है.
(साप्ताहिक अखबार  'युवा शक्ति' में छपा मेरा आलेख)

5 टिप्‍पणियां:

  1. 'मनन' करके 'अनुकरण' करने योग्य आलेख है।

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  2. एक स्त्री द्वारा स्त्रियों की कमजोरी बताते हुए लिखा गया अच्छा लेख.
    हर तरह के पुरुष और स्त्रियाँ इस समाज में हैं.
    आप की इस बात से सहमत कि आधुनिक शिक्षित युवतियों में व्यवहारगत अंतर्विरोध और आत्म-मुग्धता की मनोदशा में इज़ाफा हुआ हैं.आज का समय ऐसा है कि हर एक को आईना साथ लिए चलना होगा.वर्ना साथ वाले तो दिखा देते ही हैं.:)

    [कुछ ऐसा ही लेख काफी समय पहले एक पुरुष ब्लोगर ने भी लिखा था जिस का काफी विरोध भी हुआ था .]

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  3. Topic is related to social life of women.Nice thought about nice way

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  4. बहुत ही सधा हुआ ... अच्छा और सुंदर आलेख...

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