मुझे खुद पर शर्म आती है : माई नेकेड सीक्रेट *
(*Discovery चैनल से साभार)
डिस्कवरी चैनल पर 'माई नेकेड सीक्रेट' नामक एक आधे घंटे के कार्यक्रम को देखकर बड़ी उथलपुथल-सी मची हुई थी. जरूरी हो गया साझा करना. पहले इस कार्यक्रम के बारे में बता दूँ कि यह 'हेलेना' नाम की पैतीस वर्षीय युवती पर आधारित है, जो बच्चों की देखभाल करनेवाली नैनी है. उसके साथ टीवी स्क्रीन पर उसकी बहन और नजदीकी मित्र नजर आती हैं. जिनके साथ वह हंसती, गाती, मस्ती करती दिखती है. किन्तु कार्यक्रम का मूल बिंदु यह है कि वह अत्यंत निराशाजनक स्थिति में है. कारण है उसका बेडौल शरीर. वह सतत कुंठित होती रहती है, उसे स्वयं से नफरत है. उसकी इस मानसिक अवस्था से कोई परिचित भी नहीं दिखता. वह एक बार सर्जरी करवा कर शरीर का अतिरिक्त मांस निकलवा चुकी है. सर्जरी में कुछ गड़बड़ी होने के कारण हेलेना का शरीर खासा बेडौल भी हो गया है. भविष्य की चिंता में वह मायूस हो गयी है. सम्बंधित डॉक्टर द्वारा उसके विविध अंगों के फोटोग्राफ लिए जाते हैं, जिन्हें देखकर वह बहुत रोती है. यही फोटोग्राफ उसके मित्र को पहली बार दिखाकर उसकी प्रतिक्रिया ली जाती है, जहाँ वह कहती हैं कि उसे नही लगता कि हेलेना बदसूरत है. हाँ, यह उसके जीवन का कठिन समय जरूर है. ऐसा कहते ही वह फफककर रोने लगती है. हेलेना पुनः सर्जरी करवाती है. चार घंटे की सर्जरी और छः हफ़्तों के बाद वह ठीकठाक दिख रही है, खुश है. जबकि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि कब सारी वसा जमकर उसे पहले जैसा बना दे.
इस कार्यक्रम को देखते हुए यह अहसास गहराता चला गया कि आज की स्त्री का सौंदर्यबोध स्वयं से उत्पन्न नफरत पर आधारित है. उसका सौन्दर्यबोध स्टीरियोटाइप छवियों में उलझा हुआ है. जहाँ वह हमेशा दूसरों की तरह दिखना चाहती है. एक-जैसी बॉडी-टाइप के जमाने में वह खुद से शर्मसार है. शरीर और सौंदर्य के मानक हमेशा से अस्थिर रहे हैं...कभी जीरो फ़िगर तो कभी थोड़ी सुगठित मांसलता... गौरतलब है कि इस हाड़-सौन्दर्य और मांसल-सौन्दर्य में अनुपात ज़ायका बनाये रखने तक ही सीमित है. तभी वह उपयोगी है, बेचने के लायक है. वह ऐसी व्यवस्था का हिस्सा है जहाँ उसके सन्दर्भ में क्या, कितना, कहाँ, कितना ज्यादा या कम जैसी संभावनाएं पूर्वपरिभाषित हैं. किस्साकोताह यह कि रास्ते वही पहलेवाले बने-बनाये ही हैं...बस आज्ञाकारी भाव से चलने की जरूरत है. आश्चर्य नही कि बोल्डनेस और स्वतंत्रता कि बड़ी-बड़ी तकरीरें शरीर और सौन्दर्य के वस्तुकरण पर आकर टूटती हैं.
सौंदर्य और श्रृंगार की परम्परागत लालसा ने स्त्री प्रजाति को गतिहीन, अविकसित व निष्क्रिय बना दिया है. सीमोन द बोउवार के अनुसार,''स्त्रियों की पोशाक और सज्जा के उपकरण भी इस तरह बनाये जाते हैं, जिससे वे विशेष कार्य न कर सकें.चीन की स्त्रियों के प्रारंभ से ही पांव बंधे रहते हैं, जिससे उन्हें चलने में भी कठिनाई होती है. हॉलीवुड की अभिनेत्रियों के नाखूनों पर इतनी गहरी पॉलिश रहती है कि वे हाथ से कार्य करना पसंद नहीं करतीं. उन्हें 'भय' रहता है, पॉलिश उतर जाने का. ऊची एड़ी के जूते पहनने और कमर और उसके आसपास के हिस्से को आवरणों में छिपाए रखने के कारण वे अंग विकसित नही हो पाते. उनमें घुमाव व वक्रता नहीं आती. वे निष्क्रिय पड़ जाते हैं.''(सीमोन द बोउवार, स्त्री: उपेक्षिता, पृ.८५-८६)
वास्तविकता यही है कि जब तक स्त्री को कोमल, सौन्दर्य-युक्त आनंद देनेवाली वस्तु के रूप में देखा जायेगा तब तक उसका विवेकवान, विचारशील मनुष्य रूप हमेशा अवहेलित और अपमानित होता रहेगा. इस क्रम में उसका शोषण, उत्पीड़न भी अधिक होगा... सौन्दर्य का रेशमी आवरण झूठे आदर भाव के साथ गहन अत्याचारी भाव को भी जन्म देता हैं. अतः विवेकहीन बाहरी सुन्दरता औरत को अंतर्विरोधी व आत्मग्रस्त बनाती है. वह छोटी-छोटी सुरक्षा व सुविधा के लिए गैरवाजिब समझौते करती है. अंततः नफरत की शिकार होती है. जैसा कि मेरी वोल्स्तानक्राफ्ट का भी मानना है ''प्रकृति के प्रथम कोमल दोष से एकरेखीय वंशक्रम में, सौन्दर्य की सत्ता को, उत्तराधिकार में प्राप्त कर, उन्हें अपनी शक्तिमत्ता को कायम रखना होता है, उन प्राकृतिक अधिकारों को, तर्कबुद्धि का उपयोग जिसे उपलब्ध करा सकता था, उन्होंने त्याग दिया था और समानता से उपजे आनंद अर्जित करने के उद्यम के बजाय अल्पकालिक रानियाँ बनना अधिक पसंद करती थीं. अपनी हीनता से उन्नत(यह अंतर्विरोधी भाव प्रतीत होता है) वे स्त्री रूप में अनवरत आदर-पुष्प अर्पित किये जाने की मांग करती हैं, हालाँकि अनुभव से उन्हें यह शिक्षा ग्रहण की जानी चाहिए कि वे पुरुष जो नितांत कर्तव्यनिष्ठ सटीकता के साथ स्त्री-जाति के प्रति, यह उद्यत आदर भाव अर्पित करने में स्वयं को गौरोवान्वित अनुभव करते हैं, अत्याचार के लिए सर्वाधिक प्रवृत्त हो जाते हैं और उस दुर्बलता से घृणा करने लगते हैं जिसका वे ऊंचा मूल्याङ्कन करते होते हैं.'' ( मेरी वोल्स्तानक्राफ्ट, स्त्री-अधिकारों का औचित्य-साधन,पृ.८६.)
स्त्री की देह, इच्छा, निर्णय, स्वायत्तता के प्रश्न को कहीं न कहीं बोल्डनेस, बॉडी, ब्यूटी के पूंजीवादी प्रक्षेपणों से नियंत्रित और नियमित किया जा रहा है. कामुकता व सेक्स उद्योग के विशालकाय रूप ने कामुकता का नया अर्थशास्त्र विकसित कर लिया है. अकारण नही कि शरीर और जीवन-शैली को अस्मिता से जोड़कर प्रस्तुत किया जा रहा है. संचार माध्यमो में देह के 'एपिअरेंस' और 'कंट्रोल' की अनेकानेक प्रस्तुतियां आम जनजीवन पर हावी होती जा रही हैं. डाइटिंग उद्योग,जिम, स्पा, पार्लर,प्लास्टिक सर्जरी की कई किस्मो ने विश्व्यापी पूंजीवादी व्यवस्था को नई गति दी है. इसके केंद्र में विशेषकर युवा हैं. शरीर, सेक्स और सेक्सुअलिटी की वास्तविकता की जगह नियोजित तरीके से पूर्वाग्रहों का सृजन किया जा रहा है. वैज्ञानिकता और सहज भाव कहीं पीछे छूट गया हैं.
परवर्ती पूंजीवादी बाज़ार ने तेजी से शरीर, सौन्दर्य, स्वास्थ्य, सुरक्षा,सुविधा के नाम पर वस्तुतः असुरक्षा और असंतोष का निर्माण किया है. सारे मानक बाज़ार के हिसाब से सुनिश्चित कर दिए गये हैं जिसे प्राप्त करने के लिए दैनंदिन जीवन में सतत संघर्ष जारी है. और सारी कोशिशों के बावजूद पूर्वनिर्मित मानकों तक नही पहुँच पाना निराशा और तनाव का सृजन करता हैं...तथाकथित सुंदर दिखने के लिए वे खतरनाक ऑपरेशन तथा निराहार रहने का जोखिम उठाती हैं. पुनः मोटे हो जाने, कुरूप हो जाने, लड़की की तरह न दिख पाने, प्रेमी या पति न मिलने के भय से आक्रांत युवती सामान्य जीवन से दूर हो जाती है. उसका सारा प्रयास क्या-क्या चाहिए पर टिका होता है और इसी क्रम में वह अपना स्वाभाविक सौन्दर्य, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान खोती चली जाती है. वह ऐसी दौड़ में शामिल हो गयी है जहाँ स्वार्थी और आत्मग्रस्त हो जाना जितना आसन है उतना ही अकेले पड़ते भी. यहाँ सभी शत्रु हैं, कोई मित्र नही. ऐसे में आत्मबल से हीन औरत आवश्यक संबंधों को न तो बना पाती है, न ही निभा पाती है. देह ही उसका साधन और साध्य बन जाती है. वह गहरी निराशा में खुद से घृणा व दूसरों से ईर्ष्या करती है.
स्त्री का शरीर और सुन्दरता उसके प्रभावशाली व्यक्तित्व के ही हिस्से हैं...किन्तु पूरी स्त्री नही. यहाँ जरुरी हैं कि औरत को उसके काम और भूमिका से पहचाना जाये. इससे उसके घर और बाहर के श्रम को पहचान और सम्मान तो मिलेगा ही साथ ही वह स्वयं भी परम्परागत अनुत्पादकता के भ्रम से निकल सकेगी. उसकी शिक्षा और परवरिश में उसके निजी व्यक्तित्व को ध्यान में रखा जाना चाहिए न कि किसी अदेखे पुरुष या उसके परिवार को. आवश्यक है कि वह अपनी देह को लेकर सहज हो. तभी उसका सौन्दर्य और श्रृंगार सजीव होगा. हमेशा दूसरों की नज़र से खुद को देखती स्त्री निजी इच्छाओं, जरूरतों से अनजान रह जाती है. आज का हाल यह है कि हरतरफ स्त्री ही छाई हुई है, लेकिन औरत, उसकी अनुभूति, अभिव्यक्ति को लेकर असहिष्णुता और संवेदनहीनता का विस्तार हुआ है. शरीर, सेक्स और सेक्सुअलिटी के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक रूप में कुंठाओं और अंतर्विरोधों का निर्माण हुआ है. हम देह के सामान्य विकास और प्रक्रियाओं को दरकिनार कर अनेक काल्पनिक अपेक्षाओं में जी रहे हैं...इससे चेतना, स्वायत्तता की क्षति हुई है. अतः जरूरी है कि स्त्री अपने अंतर्विरोधों से स्वयं संघर्ष करें, वस्तु बनने की प्रक्रिया से सचेत रूप से अलग हो. खुद से प्रेम करना सीखे.
sateek likha hai aapne . .aapko holi parv ki hardik shubhkamnayen .YE HAI MISSION LONDON OLYMPIC !
जवाब देंहटाएंसार्थक और सामयिक पोस्ट, आभार.
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे ब्लॉग meri kavitayen पर भी पधारने का कष्ट करें.