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बुधवार, 2 जनवरी 2013

एकसमान नागरिक संहिता बनाम स्त्री

संवैधानिक तंत्र में कई संरचनागत खामियों और मौजूदा कानूनों के क्रियान्वयन के अभाव ने भारतीय स्त्री को अपाहिज बनाए रखा है. उसके पास वह बुनियादी ढाँचा ही नहीं है जहाँ वे अपनी शक्ति का स्वयं और समाज के हित में उपयोग कर सके. यों तो उसके पास समान नागरिक होने का अधिकार है पर यथार्थतः नहीं है. गौरतलब है कि औपनिवेशिक काल की अनेक समस्याएँ स्वाधीन भारत को आनुवांशिक रूप से मिली. उस पर भी विकल्पहीन पितृसत्ताक राजनीतिक रवैये ने समय व समाज की माँग को लगातार दरकिनार किया. एक ओर लिंगीय भेदभाव तो दूसरी ओर ब्रितानी शासकों द्वारा जातिगत आधार पर विभिन्न समुदायों को अलग-अलग कानून प्रदान कर दिए गए. फलस्वरूप विभिन्न जनसमुदाय निजी धार्मिक नियमों (पर्सनल लॉ) द्वारा संचालित होने लगे. अतः भारतीय महिलाओं का तिहरा शोषण जारी रहा, पहला, औपनिवेशिक शासन के कारण, दूसरा, मान्य लिंगभेद और तीसरा, सामाजिक-धार्मिक पूर्वाग्रहों और सीमित समाज सुधार की परिकल्पना के कारण.
पीड़ित नारी समाज ने अडिग होकर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समान नागरिकता की माँग की. आगे चलकर अनुच्छेद 44 में संविधान के समक्ष सभी नागरिकों को समान अधिकार दिया गया तथा समान कानूनी सुरक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी स्वीकार की गई. यहीं नहीं औरतों की सुरक्षा व समानता के हेतु कई प्रावधान निर्धारित किए गए. एकसमान नागरिक संहिता में धर्म, जाति, सम्प्रदाय से इतर हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी और अनुसूचित जातियों इत्यादि सबके लिए एक कानून के साथ सभी समुदायों में स्त्री-पुरुष की अधिकारगत एकरूपता को महत्वपूर्ण माना गया. इनका उल्लंघन किए जाने पर कोई भी नागरिक राज्य के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता है. इस कानून के साथ निजी कानूनों की उपस्थिति ने पारम्परिक असमानता और पूर्वाग्रहों को बनाए रखा. पुंसवादी मानसिकता के कारण लौंगिक रूप से धर्मनिरपेक्ष संहिता का रूपांतरण पुरुष, जाति, वर्ग और बहुसंख्यक समाज के विशेषाधिकार के रूप में हो गया है. आज भी स्त्री हित में कानून पारित करना और उसे लागू करना टेढ़ी खीर हैं.
आठवें दशक में पर्सनल लॉ के स्त्री विरोधी प्रावधानों को लेकर महिला आंदोलन व्यापक रूप से सक्रिय रहा. सन् 1985 में चर्चित शाहबानो केस में उसके पति द्वारा गुजारा भत्ता न दिए जाने पर जनवादी महिला समिति, महिला दक्षता समिति, राष्ट्रीय महिला संघ, दहेज विरोधी चेतना मंच ने आंदोलन किया और गिरफ्तारियाँ दीं. नारीवादियों, समाज-सुधारकों और मुस्लिम उदारवादियो द्वारा यह माँग की गई कि पर्सनल लॉ में सुधार किया जाए तथा धारा 125 (जो सभी धार्मिक बंधनों से मुक्त और ऊपर है) को लागू किया जाए और शाहबानो को उसके पति द्वारा गुजारा भत्ता दिए जाने की अपील की गई. इन व्यापक जनांदोलनों के बावजूद संसद में मुस्लिम महिला संरक्षण विधेयक पेश किया गया. स्वायत्त महिला संगठनों और राजनीतिक महिला संगठनों ने इसका पुरजोर विरोध कर धर्म को राजनीति से दूर रखने, चुनावी रणनीति के तहत साम्प्रदायिक और धर्मांध लोगों को दी जानेवाली तात्कालिक प्रलोभन की मंशा से निजाद पाने एवं धर्म को व्यक्तिगत संबंधों का संचालक तत्व न बनाए जाने की माँग की. किंतु वोटो की राजनीति और खास बड़े तबके को खुश रखने हेतु सरकार ने धर्मनिरपेक्षता की एक बिल्कुल भिन्न परिभाषा सर्जित की जिसके अनुसार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने सभी सम्प्रदायों के निजी कानूनों को शासकीय मंजूरी दे दी. स्त्री हितों और विकास को सरकारी प्रतिगामी रवैये ने गहरा आघात पहुँचाया. महिला संगठनों, नारीवादियों, उदारवादियों द्वारा किए गए प्रयास शून्य पर खड़े हो गए.
शाहबानो केस के बाद मैरी राय और शहनाज शेख ने ईसाई व मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ याचिका दायर की. उन पर तत्ववादी साम्प्रदायिक गुटों की ओर से भीषण दबाव डाला गया. रूढ़िवाद और ठस्स साम्प्रदायिकता के गाढ़े रंग में जरूरी मुद्दे खो गए. इसी प्रकार सिख पर्सनल लॉ में 'चादर अंदाजी' के प्रावधान का महिला संगठनों ने विरोध किया. सिख पर्सनल लॉ में स्त्री का सम्पत्ति पर अधिकार नहीं होता तथा पति की मृत्यु के उपरांत स्त्री का विवाह पति के छोटे भाई (देवर) से बिना उसकी सहमति लिए कर दिया जाता है. सड़कों पर उतर कर औरतों ने इन प्रावधानों का विरोध तो किया लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात. सरकारी इच्छा-शक्ति का पता इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि भारी दबाव में आकर 1987 में कमीशन ऑफ सती प्रीवेन्शन एक्ट पारित किया गया जिसमें सती को आत्महत्या के रूप में परिभाषित किया गया. पारिवारिक सम्पत्ति-शास्त्र, स्त्री का कामुक नियंत्रण और हिंसा के सभी प्रकार के कारकों को दरकिनार करते हुए आत्महत्या की कोशिश करनेवाले व्यक्ति को दंडित करने का प्रावधान किया गया जो कि स्वयं पीड़ित औरत थी.  
आज भी औरत के खिलाफ हिंसा के, बलात्कार के कानूनों में अनेक कमियाँ मौजूद हैं. शादी के बाद जमा की गई संपत्ति, घरेलू श्रम की उत्पादकता की पहचान, राजनीतिक आरक्षण के मसले समस्याप्रद बने हुए हैं. यहाँ तक कि तलाक का कानून भी मूल आधारों को लेकर अंतर्विरोधग्रस्त है. ईसाई पर्सनल लॉ में परगमन करनेवाले पुरुष से स्त्री को तलाक का अधिकार प्राप्त नहीं है जबकि पुरुष को है. तलाक के साथ बच्चों की सुरक्षा, संरक्षण और भविष्य से जुड़े गम्भीर मसले हैं. वेतन व श्रम के कानूनों के बावजूद उनकी अवहेलना जारी है.
नवउदारवाद और ढ़ाँचागत समायोजन की प्रक्रिया ने स्त्री-मुक्ति का छद्म निर्मित किया है. औरत पहले से ज्यादा गरीब हुई है. पामाली ने लैंगिक विभाजन को भी बड़ा कर दिया है. उसे सहायक श्रम माने जाने के कारण पुरुष को काम पहले मिलता है. उसका उपयोग तात्कालिक संरक्षित श्रम के रूप में होता है. बाद में काम मिलता है और निकाली पहले जाती है. नई अर्थनीति ने उसके वैतनिक और अवैतनिक रूपों पर बुरा प्रभाव डाला है. सरकार की लोक-कल्याणकारी खर्चों में कटौती, बेरोजगारी, अस्थिर आय और चीज़ों की बढ़ती कीमतों के कारण औरत की गतिविधि ज्यादा प्रभावित होती है. उसे घरेलू श्रम के साथ अल्पकालिक काम भी करने पड़ते हैं. परिवार में ज़रूरतों, सुविधा, सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिहाज से वह सबसे निचले पायदान पर खड़ी होती है. वह स्वयं, उसके आत्मीय और व्यवस्था मिलकर उसकी अनदेखी करते हैं. देखा जाए तो उसकी बेगारी, मुफ्त आर्थिक सहायता बढ़ी है. अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति से सम्बद्ध नेत्री बृंदा कारात का मानना है कि ''वास्तव में जहाँ तक महिलाओं के अधिकारों का संबंध है, यह एक धोखा है क्योंकि कोई भी ऐसे कानून मौजूद नहीं हैं जो कि 'बेहतरीन कानून' माने जाएं. ऐसा संभव है कि कुछ कानून हों जो तुलनात्मक रूप से बेहतर हों पर फिर भी वे महिला और पुरुष के बीच असमानता पर आधारित हैं और एकछत्री कानून का आधार नहीं बन सकते.''
बृंदा कारात कानूनों को लैंगिक रूप में सहिष्णु बनाने पर जोर देती हैं और मानती हैं कि इसका स्वरूप वर्तमान धर्मनिरपेक्ष संविधान के ढ़ाँचे से परे भी फैला हुआ है. कारण कि धर्मनिरपेक्ष संविधान की संरचना कई मायनों में प्रतिकूल दिशा में उत्पादक रही है. साथ ही वे यह आशंका भी व्यक्त करती हैं कि यह मसला अधिक धैर्य, लम्बे समय और राजनीतिक इच्छा-शक्ति की माँग करता है जो तत्कालीन मामलों व सुधार में भटकाव भी ला सकता है- ''क्या तुरंत समान नागरिक संहिता (कॉमन सीविल कोड) के लिए नारा आज भारतीय महिलाओं के हित में है? आज भारतीय महिलाओं की जो आवश्यकता है उससे संबंधित उन नाजुक विषयों पर एक लैंगिक दृष्टि से न्यायसंगत कानून जो कि धार्मिक विश्वासों पर आधारित कानून या यहाँ तक कि देश में मौजूदा धर्मनिरपेक्ष कानून के द्वारा निर्धारित ढाँचों के भी परे जाता है. लैंगिक दृष्टि से निष्पक्ष न्याय और समानता की संवैधानिक गारंटियाँ जरूरी नहीं हैं कि कानूनों के किसी ढ़ाँचे से जुड़ी हों. बल्कि मौजूदा कानूनी ढ़ाँचे में तो एकछत्री कानून बहुत हद तक प्रतिकूल उत्पादक हो सकता है. इस मुद्दे को उठाना भी कानूनी सुधार क्षेत्र में जो तुरंत प्राप्त किया जा सकता है उससे एक भटकाव हो सकता है.'' अतः उपस्थित कानूनों में व्यापक सुधार की दरकार है.

कानूनों के द्वारा समाजिक परिवर्तन को दिशा मिलती है, दबाव बढ़ता है. किंतु केवल नियम-कानून वैकल्पिक सामाजिक परिवर्तन नहीं कर सकते हैं. एक ओर असल समस्याओं की पहचान जरूरी है दूसरी ओर, दलितों, पिछडों और महिलाओं को लेकर संवेदनशील होना भी जरूरी है. संविधान में पितृसत्ता को समस्या न मानकर सामान्य सामाजिक स्वभाव के रूप में देखना औरतों और पिछड़े तबकों के लिए हानिकारक है. पितृसत्ता एवं उसकी वैचारिकता से संघर्ष की आवश्यकता है ताकि न केवल कानून बनें बल्कि वे प्रभावी भी हों. मानवाधिकारों और सामाजिक रवैये को सही दिशा मिले. औरतों की राजनीतिक सचेतनता व कानूनी जागरूकता को बढ़ाने की आवश्यकता है. नीति-नियामक पदों पर उसकी हिस्सेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए


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